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श.२: उ.१: सू.४८,४६
२२६ नत्थि पुण से अंते।
नास्ति पुनः तस्य अन्तः। सेत्तं खंदया ! दबओ सिद्धे सअंते, खेत्तओ। तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः सिद्धः सान्तः, सिद्धे सअंते, कालओ सिद्धे अणंते,भावओ क्षेत्रतः सिद्धः सान्तः, कालतः सिद्धः अनन्तः, सिद्धे अणते॥
भावतः सिद्धः अनन्तः।
भगवई अन्त नहीं है, वह अनन्त है। स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः सिद्ध सान्त है, श्रेत्रतः सिद्ध सान्त है, कालतः सिद्ध अनन्त है, भावतः सिद्ध अनन्त है।
४६.जेविय ते खंदया ! इमेयारूवे अज्झथिए
चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्थाकेण वा मरणेणं मरमाणे जीवे बढति वा, हायति वा? तस्स वि य णं अयमठे-एवं खलु खंदया! मए दुविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा
-बालमरणे य, पंडियमरणे य । से किं तं बालमरणे? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा१. वलयमरणे २. वसट्टमरणे ३. अंतोसल्लमरणे ४. तब्भवमरणे ५. गिरिपडणे ६. तरुपडणे ७. जलप्पवेसे . जल- णप्पवेसे ६. विसभक्खणे १०. सत्थोवाडणे ११. वेहाणसे १२. गद्धपढे इचेतेणं खंदया ! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणंतेहिं तिरिय- भवम्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणंतेहिं मणुयभवम्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणंतेहिं देवभवम्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणाइयं च णं अणवदग्गं चाउरंतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ। सेत्तं मरमाणे वड्ढइ-वड्टइ।
त्योवाडणे पाटन द्वादशविधेन वालणः आत्मानं
योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्पः ४६. 'स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्पः समुदपादि
संकल्प उत्पन्न हुआकेन मरणेन म्रियमाणः जीवः वर्धते वा, हीयते । किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है अथवा वा?
घटता है ? तस्यापि अयमर्थः-एवं खलु स्कन्दक! मया उसका भी यह अर्थ है स्कन्दक! मैंने मरण दो द्विविधं मरणं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- बालमरणं प्रकार का बतलाया है, जैसे-बालमरण और च पण्डितमरणं च ।
पण्डितमरण। अथ किं तत् बालमरणम् ?
वह बालमरण क्या है? बालमरणं द्वादशविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- बालमरण बारह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेवलयमरणं, वशार्तमरणम्, अन्तःशल्यमरणं, १. वलयमरण-संयम-जीवन से च्युत होकर तदभवमरणं, गिरिपतनं, तरुपतनं, जल
मरना। प्रवेशः, ज्वलनप्रवेशः, विषभक्षणं, शस्त्राव- २. वशार्तमरण-इन्द्रियों के वशवर्ती होकर पाटनं, वैहानशं, गृध्रस्पृष्टम्। इत्येतेन मरना। स्कन्दक! द्वादशविधेन बालमरणेन म्रियमाणः । ३. अन्तःशल्यमरण—माया आदि आन्तरिक जीव अनन्तैः नैरयिकभवग्रहणः आत्मानं शल्य की दशा में मरना। संयोजयति, अनन्तैः तिर्यगभवग्रहणैः आत्मानं ४. तद्भवमरण-तिर्यंच या मनुष्य भव में संयोजयति, अनन्तैः मनुष्यभवग्रहणैः आत्मानं । विद्यमान प्राणी पुनः तद्भवयोग्य तिर्यंच या संयोजयति, अनन्तैः देवभवग्रहणैः आत्मानं मनुष्य भवयोग्य आयुष्य का बंध कर वर्तमान संयोजयति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' चतु- आयु के क्षय होने पर मरता है, उसका मरण रन्तं संसारकान्तारम् अनुपर्यटति। तदेतत् तद्भवमरण है। नियमाणः वर्धते-वर्धत।
५. गिरिपतन-पर्वत से गिरकर मरना। ६. तरुपतन वृक्ष से गिरकर मरना। ७. जलप्रवेश-जल में डूब कर मरना। १. ज्वलनप्रवेश-अग्नि में प्रवेश कर मरना। ६. विषमक्षण जहर खाकर मरना। १०. शस्त्रावपाटन छूरी आदि शस्त्रों से शरीर को विदीर्ण कर मरना। ११. वैहानश-गले में फांसी लगा वृक्ष की शाखा से लटक कर मरना। १२. गृद्धस्पृष्ट-गीध द्वारा मांस नोचे जाने पर मरना। स्कन्दक ! इस बारह प्रकार के बालमरण से मरता हुआ जीव नैरयिक के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको संयोजित करता है, तिर्यंच के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आप को संयोजित करता है, मनुष्य के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको संयोजित करता है, देव के अनन्त भवग्रहण से अपने आपको संयोजित करता है और वह आदि-अन्तहीन चतुर्गत्यात्मक संसारकान्तार में अनुपर्यटन करता है। इस बालमरण से मरता
हुआ जीव बढ़ता है, बढ़ता है। तदेतत् बालमरणम् ।
यह बालमरण है।
सेत्तं बालमरणे ।
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