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________________ भगवई ५०. एत्य णं से खदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं मंते! तुभं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्म निसामित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध ॥ २३१ श.२: उ.१: सू.५०-५२ अत्र सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः संबुद्धः ५०. इस बिन्दु पर वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, संबुद्ध होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्-इच्छामि बन्दन-नमस्कार करता है। वन्दन-नमस्कार कर भदन्त ! तव अन्तिके केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं इस प्रकार बोलता है “भन्ते ! मैं आपके पास निशमितुम् । केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुनना चाहता हूं।" यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । "देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।" ५१. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स ततः श्रमणः भगवान महावीरः स्कन्दकस्य ५१. श्रमण भगवान् महावीर कात्यायनसगोत्र कचायणसगोत्तस्स, तीसे य महइ- कात्यायनसगोत्रस्य, तस्यां महामहत्यां परिषदि स्कन्दक को उस विशाल परिषद् में धर्म कहते महालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ। धर्म परिकथयति । धर्मकथा भणितव्या। हैं। धर्मकथा' वक्तव्य है। घम्मकहा भाणियव्वा॥ भाष्य १. धर्मकथा धर्मकथा के वर्णन की भी एक शैली निर्धारित कर ली गई। धर्म-देशना दी, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। इसे ओवाइयं में जो धर्मकथा का निर्देश है, उसी की ओर सर्वत्र निर्देश आगम-संकलन-कालीन शैली ही कहा जा सकता है। किया गया है। भगवान् महावीर ने सबको एक ही प्रकार की ५२. तए णं से खदए कचायणसगोत्ते ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य ५२. 'वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक श्रमण भगवान् समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं भगवतः महावीरस्य अन्तिके धर्म श्रुत्वा महावीर के पास धर्म सुनकर अवधारण कर सोचा निसम्म हतुद्दचित्तमाणदिए णंदिए निशम्य हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस- प्रीतिमनाः परमसीमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्- मनवाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विसप्पमाणहियए उवाए उढेइ, उद्वेत्ता हृदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थया श्रमणं विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणप्रदक्षिणां मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान् महावीर पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासिनमस्थित्वा एवमवादीत् करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलासदहामि णं भंते ! निग्गेयं पावयणं, __ श्रद्दधामि भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। पत्तियामिण भंते ! निग्गथं पावयणं, प्रत्येमि भदन्त ! नैन्यं प्रवचनम्, भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रतीति करता हूं। रोएमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, अन्भु- रोचे भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में रुचि करता हूं। टेमिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं। अभ्युत्तिष्ठामि भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् । भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूं। एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं एवमेतद् भदन्त ! तथैतद् भदन्त ! अवितथ- भन्ते ! यह ऐसा ही है, भन्ते ! यह तथा भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते! मेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त! इष्टमेतद् (संवादितापूर्ण) है, भन्ते! यह अवितथ है, भन्ते! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् यह असंदिग्ध है, भन्ते ! यह इष्ट है, भन्ते ! यह भंते!भदन्त! प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भन्ते! यह इष्ट-प्रतीप्सित हैसे जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु समणं भगवं तत् यथेदं यूयं वदथ इति कृत्वा श्रमणं जैसा आप कह रहे हैं-ऐसा भाव प्रदर्शित कर महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वह श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार उत्तरपुरस्थिमं दिसीभायं अवकमइ, अवक- नमस्थित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रा- करता है, वन्दन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशामित्ता तिदंडं च कुंडियं च जाव घाउरत्ताओ मति, अपक्रम्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च यावद् भाग (ईशान कोण) की ओर जाता है, जाकर य एगते एडेइ, एडेत्ता जेणेव समणे भगवं धातुरक्ते एकान्ते एडयति, एडयित्वा यत्रैव त्रिदण्ड, कमण्डलु, यावत् धातुरक्त शाटक को महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, एकान्त में डाल देता है, डालकर जहां श्रमण समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आद- भगवान महावीर हैं, वहां आता है। आकर श्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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