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श.२ः उ.१: सू.५२
पयाहिणं करेइ, करेता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्त - पलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य ।
से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्य भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमइ । एस मे नित्यारिए समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ।
एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया एगे भंडे इट्टे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेजे बेस्सासिए सम्म बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे, माणं सीयं मा णं उन्हं, मा
खुहा, माणं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं वाला, माणं दंसा, माणं मसया, माणं वाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगा का परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्टु एस मे नित्यारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ।
तं इच्छामि देवाणुपिया ! सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयरं विणय-वेणइय-चरण- करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं ॥
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क्षिण- प्रदक्षिणां करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्— आदीप्तः भदन्त ! लोकः, प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः, आदीप्त- प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः जरसा मरणेन च ।
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अथ यथानामकः कश्चिद् गृहपतिः अगारे ध्यायमाने यः सः तत्र भाण्डः भवति अल्पभारः मूल्यगुरुकः, तं गृहीत्वा आत्मना एकान्तमन्तम् अपक्रामति । एष मम निस्तारितः सन् पश्चात् पुरा च हिताय सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भवष्यति ।
एवमेव देवानुप्रिय ! ममापि आत्मा एकः भाण्डः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः 'मणामे' स्थेयान् वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः अनुमतः भाण्डकरण्डकसमानः, मा शीतं, मा उष्णं, मा क्षुधा, मा पिपासा, मा चौराः, मा व्यालाः, मा दंशाः, मा मशकाः, मा वातिक- पैत्तिकश्लैश्मिक-सान्निपातिकाः विविधाः रोगातंकाः परीषहोपसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्वा एष मम निस्तारितः सन् परलोकस्य हिताय सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगमिकत्वाय भविष्यति ।
तद् इच्छामि देवानुप्रिय ! स्वयमेव प्रव्राजितं, स्वयमेव मुण्डितं, स्वयमेव शैक्षापितं, स्वयमेव शिक्षापितं स्वयमेव आचार - गोचरं विनयवैनयिक-चरण- करण-यात्रामात्राप्रत्ययं धर्ममाख्यातम् ।
भाष्य
१. सूत्र ५२
प्रस्तुत सूत्र में स्कन्दक के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति आस्था की अभिव्यक्ति का निरूपण है। फिर उसके द्वारा भगवान् महावीर के पास प्रवज्या लेने की प्रार्थना का वर्णन है। उस समय एक
भगवई
भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भकर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वन्दन- नमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला- भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है), भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। (प्रज्वलित हो रहा है), भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त- प्रदीप्त हो रहा है। जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाता है । ( और सोचता है) अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा ।
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"देवानुप्रिय ! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान है। इसे सर्दी न लगे, गर्मी न लगे, भूख न सताए, प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और संनिपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगमिकता के लिए होगा। इसलिए देवानुप्रिय ! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनयवैनयिक, चरण-करण-यात्रामात्रा-मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं ।
सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में दीक्षित होने की परम्परा जटिल नहीं थी। विचार- परिवर्तन के बाद कोई भी व्यक्ति जहां चाहे दीक्षित हो सकता था। ऐसा करना कोई विवाद या विग्रह का विषय नहीं
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