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________________ भगवई २३३ श.२: उ.१: सू.५२ बनता था। इसलिए परिव्राजक स्कन्दक ने भगवान् के पास प्रव्रजित होने की प्रार्थना सहज भाव से की और भगवान ने उसे अपने संघ में प्रव्रजित कर लिया। एक विरक्त आत्मा दीक्षित होने से पहले जिन शब्दों में अपने वैराग्य की भावना प्रस्तुत करता है, उसकी भी आगम-साहित्य में एक निश्चित वर्णन-शैली है। स्कन्दक के प्रकरण में भी उस शैली का प्रयोग किया गया है। शब्द-विमर्श निर्ग्रन्य-प्रवचन-निर्ग्रन्थों का शासन। भगवान् महावीर के समय में जैन शासन निर्ग्रन्थ-प्रवचन के नाम से प्रख्यात था। तथा सत्य, वैसा। प्रतीप्सित-प्राप्त करने के लिए इष्ट । लोक-जीव-लोक। माण-आभरण। अपभारे अल्पभार वाला। वृत्तिकार ने अप्पसारे पाठ की व्याख्या की है।' जयाचार्य ने भी उसी का अनुसरण किया है। इसका अर्थ होता है 'अल्प किन्तु सार'। इसका अगला विशेषण है मोल्लगरुए। इसके सन्दर्भ में अप्पमारे—यह पाठ अधिक संगत लगता है। ज्ञाता०वृत्ति में अभयदेवसूरि ने अप्पमारे पाठ की व्याख्या की है, अप्पसारे को पाठांतर माना है।" हित, सुख आदि इस शब्द-समूह के लिए देखें, भ.२।३० का भाष्य। आया (आत्मा) यहां 'आत्मा' शब्द 'शरीर' 'जीवन' या 'पूर्ण व्यक्तित्व' के अर्थ में प्रयुक्त है। ओवाइयं और रायपसेणइयं में इस प्रकार के प्रकरण में 'शरीर' शब्द का प्रयोग मिलता है। पेज (स्वेयान) यह 'तर' के अर्थ में निष्पन्न स्थिर शब्द है। इसका अर्थ है 'स्थिरतर'। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'स्थैर्य' किया है।' माण्डकरण्डक-आभरण का करण्डक, टोकरी या पिटारी। वातिक वात-संबंधी रोग। पैत्तिक-पित्त-संबंधी रोग। श्लैष्मिक कफ-संबंधी रोग सानिपातिक वात, पित्त आदि दोषों के मिश्रण से होने वाला रोग। सबिवाइप-इस पद में प्रथमा के बहुवचन का लोप माना गया है। रोग लम्बे काल तक चलने वाली व्याधि।' आतङ्क–सद्योघाती व्याधि।' परीषह-शरीर और मन को पीड़ा देने वाले बाह्य और आन्तरिक कारण। उपसर्ग-उपद्रव।" त्तिकटु-यहां वृत्तिकार ने शेष माना है–त्तिकटु इत्यमिसन्याय व पालितः इति शेषः।" वाजित, मुण्डापित, शैक्षापित, शिक्षापित-वृत्तिकार ने इन चार पदों में क्रम-व्यवस्था बतलाई है। उसके अनुसार 'प्रव्राजन' का अर्थ है 'मुनि-वेश देना'। 'मुण्डापित' का अर्थ है 'केश का लुंचन'। शैक्षापित का अर्थ हैं "दिनचर्या से संबंधित क्रिया-कलाप का ज्ञान कराना । "शिक्षापित' का अर्थ है-'अध्ययन कराना' ।” आचार-गोचर-आचार-ज्ञान आदि पांच प्रकार का आचार ।" गोचर-भिक्षाचर्या ।" विनय अनुशासन अथवा विनम्रता। वैनयिक विनय का फल । नन्दी वृत्ति में भी हरिभद्रसूरि ने इसका यही अर्थ किया है।" १. भ.वृ.२१५२–'अप्पसारे'त्ति अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारम् । २. भ.जो.१।३६।१२– घर में भंड वस्तु हुदै, अल्प न्हानी तिका छै सार । वस्तु बहुमोली ग्रही आत्मना, जावै एकांत स्थान तिवार॥ ३. ज्ञाता.वृ.प.६६–पण्यं हिरण्यादि अल्पभारं, पाठान्तरे अल्पं च तत्सारं चेत्य ल्पसारं मूल्यगुरुकम्। ४. ओवा.सू.११७। ५. राय.सू.७६६। ६. म.वृ.२।५२ स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यः। ७. वही,२१५२-इह प्रथमावहुवचनलोपो दृश्यः । ८,६. वही,२ । ५२-रोगाः कालसहा व्याधयः आतंकास्त एव सद्योधातिनः। १०. विशेष जानकारी के लिए देखें, ठाणं, ४१५६७-६०१ तथा इनके टिप्पण। ११. भ.वृ.२।२। १२. देखें, ठाणं,५१४४,४५ का टिप्पण १३. भ.वृ.२।१२ प्रव्राजितं रजोहरणादिवेषदानेनात्मानमिति गम्यते। मावे वा क्तप्रत्ययस्तेन प्रव्राजनमित्यर्थः मुंडितं शिरोलुंचनेन 'सेहावियंति सेहितं प्रत्यु पेक्षणादिक्रियाकलापग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः। १४. ठाणं,५।१४७-पंचविहे आयारे पण्णत्ते, ते जहा—णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे । १५. भ.१.२।५२-आचारः-श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि, गो चरो-भिक्षाटनम् । १६. तुलना के लिए देखें, दसवे.७१२ का टिप्पण;म.वृ. २१५२ वैनयिक तत्फलं कर्मक्षयादि । १७. नन्दी, हारि.वृ.पृ.७५-वैनयिकम् –फलं कर्मक्षयादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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