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श.२ः उ.१: सू.५२-५४ २३४
भगवई नन्दी चर्णि में वैनयिक का अर्थ शिष्य किया गया है। किन्त प्रकरण प्रकार हैं। व्याख्या-साहित्य में यह 'करणसत्तरी' के नाम से प्रसिद्ध की दृष्टि से यहां विनय' का फल यही अर्थ संगत है। चरण यह व्रत आदि का सूचक है।।' इसके सत्तर प्रकार
यात्रा-संयम-यात्रा। हैं। व्याख्या-साहित्य में यह 'चरणसत्तरी' के नाम से प्रसिद्ध है। मात्रा-संयम-यात्रा के लिए आवश्यक परिमित आहार ।
करण-यह आहार-विशुद्धि आदि का सूचक है। इसके सत्तर वृत्ति-वर्तन या व्यवहार।"
५३.तएणं समणे भगवं महावीरे खंदयं कचा- ततः श्रमणः भगवान् महावीरः स्कन्दकं ५३. 'श्रमण भगवान् महावीर कात्यायनसगोत्र
यणसगोत्तं सयमेव पवावेइ, सयमेव कात्यायनसगोत्रं स्वयमेव प्रव्राजयति, स्वयमेव स्कन्दक को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, स्वयं ही मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, सयमेव सिक्खा- मुण्डयति, स्वयमेव शैक्षयति, स्वयमेव मुण्डित करते हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाते हैं, स्वयं वेड, सयमेव आयार-गोयरं विणय-वेण- शिक्षयति, स्वयमेव आचार-गोचरं विनय- ही शिक्षित करते हैं और स्वयं ही आचार-गोचर, इय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममा- वैनयिक-चरण-करण-यात्रामात्राप्रत्ययं धर्ममा- विनय-वैनयिक-चरण-करण-यात्रामात्रा-मूलक धर्म इक्खइएवं देवाणुप्पिया ! गंतब्बं, एवं ख्याति–एवं देवानुप्रिय ! गन्तव्यम्, एवं का आख्यान करते हैं—देवानुप्रिय ! इस प्रकार चिद्वियव्वं, एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्, स्थातव्यम्, एवं निषत्तव्यम्, एवं त्वक्- चलना चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए, इस एवं भंजियवं, एवं भासियव्वं, एवं वर्तितव्यम, एवं भोक्तव्यम, एवं भाषितव्यम्, प्रकार बैठना चाहिए, इस प्रकार करवट लेनी उहाय-उवाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं एवम् उत्थाय-उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु चाहिए, इस प्रकार भोजन करना चाहिए, इस संजमेणं संजमियव्वं, अस्सिंचणं अह्र णो सत्त्वेषु संयमेन संयतितव्यम्, अस्मिन् च अर्थे प्रकार बोलना चाहिए, इस प्रकार पूर्ण जागरुकता किंचि वि पमाइयवं॥ न किञ्चिदपि प्रमदितव्यम्।
से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से संयत रहना चाहिए। इस अर्थ में किञ्चित् भी
प्रमाद नहीं करना चाहिए।
भाष्य १. सूत्र ५३
प्रस्तुत सूत्र में भगवान् ने स्कन्दक के लिए जिस धर्म का वृत्तिकार ने भी एवं की संक्षिप्त व्याख्या की है। प्रवचन किया, वह एक दीक्षान्त भाषण है।
शब्द-विमर्श सूत्रकार ने एवं' शब्द के द्वारा विषय को बहुत संक्षिप्त कर
पमाइयवं-प्रमाद का अर्थ है-विस्मृति, अनवधानता, दिया। यदि वह विषय विस्तृत होता, तो शैक्ष के लिए इसकी बहुत उपयोगिता हो जाती। एवं शब्द की व्याख्या दसवेआलिय' के जयं और सयगडो के आउत्तं शब्द के आधार पर की जा सकती है।
मूर्छा।
५४. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समण- ततः स : स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य ५४. वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक श्रमण भगवान्
स्स भगवओ महावीरस्स इमं एयास्वं ध- भगवतः महावीरस्य एतम् एतद्रूपं धार्मिकम् महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को म्मियं उवएसं सम्मं संपडिवाइ-तमाणाए उपदेशं सम्यक् संप्रतिपद्यते-तद् आज्ञाय' सम्यक् प्रकार से स्वीकार करता है उसे भलीतह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तथा गच्छति, तथा तिष्ठति, तथा निषीदति, भांति जानकर वैसे ही (संयमपूर्वक) चलता है,
१. नन्दी चू.पृ.६१—वेणिया सीसा । २.प्र.सारो.प.१३२,गा.५५१
वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ।
नाणाइतियं तव कोहनिग्गहा इइ चरणमेयं ॥ ३. वही,प.१३६,गा.५६२
पिंडविसोही य समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो ।
पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु॥ ४. भ.बृ.२ । ५२-चरणं-व्रतादि, करणं-पिण्डविशुद्धयादि, यात्रा संयमयात्रा, मात्रा तदर्थमेवाहारमात्रा, ततो विनयादीनां द्वन्द्वः, ततश्च विनयादीनां वृत्तिः-वर्तनं यत्रासौ विनयवैनयिकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं
५. दसवे.अ.४,गा. ६. सूय.२।२।१६। ७. भ.वृ.२१५३–एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं ति युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः ‘एवं चिट्ठियव्वं'ति निष्कमणप्रवेशादिवर्जिते स्थाने संयमात्मप्रवचनबाधापरिहारेणोर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम्, 'एवं निसीइयव्वंति, 'निषत्तव्यम्' उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः ‘एवं तुयट्टियव्वं'ति शयितव्यं, सामायिकोवारणादिपूर्वकम् ‘एवं भुंजियव्वंति धूमाङ्गारादिदोषवर्जनतः ‘एवं भासियव्वं ति मधुरादिविशेषणोपपन्नतयेति 'एवमुत्थायोत्थाय' प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य विबुद्ध्य प्राणादिषु विषये यः संयमो-रक्षा तेन संयतव्यं—यति
तव्यम्।
धर्मम् ।
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