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भगवई
तुयट्टइ, तह मुंजइ, तह भासइ, तह उट्ठाय - उडाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमेइ, अस्सिं च णं अट्ठे णो पमायइ ॥
५५. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार- पासवण - खेल - सिंघाण- जल्ल-पारि
aणयासमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिं दिए गुत्तबंभारी चाई लज्जू धने खंतिखमे जिदिए सोहि अनियाणे अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे सुसामण्णरए दंते इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरइ ॥
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तथा त्वग्वर्तते, तथा भुनक्ति, तथा भाषते, तथा उत्थाय - उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु सत्त्वेषु संयमेन संयच्छति, अस्मिन् च अर्थे न प्रमाद्यति ।
१. आणाए
हमने संस्कृत रूप आज्ञाय किया है । वृत्ति में इसका संस्कृत रूप आज्ञया है । '
भाष्य
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ततः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः अनगारः जातः — ईर्यासमितः भाषासमितः एषणासमितः आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमितः उच्चार-प्रश्रवण-वेल-सिंघाण 'जल्ल' पारिष्ठापनिकासमितः मनः समितः वचः समितः कायसमितः मनोगुप्तः वचोगुप्तः कायगुप्तः गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तब्रह्मचारी त्यागी लज्जावान् धन्यः क्षान्तिक्षमः जितेन्द्रियः शोधितः अनिदानः अल्पोत्सुकः अबहिर्लेश्यः सुश्रामण्यरतः दान्तः इदमेव नैर्ग्रन्थं प्रवचनं पुरतः कृत्वा विहरति ।
भाष्य
१. सूत्र ५५
प्रस्तुत सूत्र में जैन मुनि की एक जीवन्त प्रतिमा उत्कीर्ण की गई है। इसके दर्शन से मुनि के मुनित्व का साक्षात्कार हो जाता है। उसके बाह्य और आन्तरिक दोनों रूप सामने आ जाते हैं। चलना, बोलना, खाना, वस्तुओं को लेना- रखना और उत्सर्ग करना-ये जीवनयात्रा की सामान्य प्रवृत्तियां हैं। इनके साथ 'समिति' शब्द का प्रयोग है। वह इस बात की और इंगित करता है कि मुनि की ये प्रवृत्तियां सर्वसाधरण की तरह नहीं होनी चाहिए। ये गुप्ति-पूर्वक होनी चाहिए। ये प्रवृत्तियां संयत और जागरुकता - पूर्ण होनी चाहिए।
मन, वचन और शरीर ये तीनों प्रवृत्ति के साधन हैं। इनका
१. भ. वृ. २५४ - तद् अनन्तरं आज्ञया — आदेशेन ।
२ . वही, २।५५ – 'ईरियासमिए 'त्ति ईर्यायां गमने समितः, सम्यक्प्रवृत्तत्वरूपं हि समितत्व; 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमए 'त्ति आदानेन — ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया—उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा— न्यासस्तस्यां समितो यः
श. २: उ.१: सू. ५४,५५
वैसे ही ठहरता है, वैसे ही बैठता है, वैसे ही करवट लेता है, वैसे ही भोजन करता है, वैसे ही बोलता है, वैसे ही पूर्ण जागरुकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से संयत रहता है। इस अर्थ में वह प्रमाद नहीं करता ।
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५५. कात्यायनसगोत्र स्कन्दक अनगार हो गयावह विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्रपात्र आदि को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्मा, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता है, मन की संगत प्रवृत्ति करता है, वचन की संगत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, शरीर का निरोध करता है, अपने आपको सुरक्षित रखता है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है, संग (आसक्ति) का त्याग करता है, अनाचरण करने में लज्जा करता है, कृतार्थता का अनुभव करता है, समर्थ होने पर भी क्षमा करता है, इन्द्रिय-जय है, अतिचार की विशुद्धि करता है, पौद्गलिक समृद्धि का संकल्प नहीं करता, उत्सुकता से मुक्त रहता है, भावधारा को आत्मोमुखी रखता है, सुश्रामण्य में रत है, इन्द्रिय और मन का निग्रह करता है और इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जिन-शासन) को ही आगे रख कर चलता है।
प्रयोग भी संयत और संगत होना चाहिए। मुनि के लिए इनकी प्रवृत्ति का निग्रह करना भी आवश्यक है । साधना के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन अपेक्षित होता है। प्रवृत्ति के बिना जीवन की यात्रा नहीं चलती और निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति में होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए यह निर्देश है कि मन, वचन, शरीर की सम्यक् प्रवृत्ति और गुप्ति दोनों करनी चाहिए । उनकी सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला मुनि मनसमित, वचनसमित और कायसमित कहलाता है; उनकी निवृत्ति करने वाला मनोगुप्त, वचनगुप्त और कायगुप्त कहलाता है । '
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स तथा 'उच्चारे 'त्यादि, इह च 'खेल' त्ति कण्ठमुखश्लेष्मा सिङ्खानकं चनासिकाश्लेष्मा, 'मणसमिए 'त्ति संगतमनः प्रवृत्तिकः, 'मणगुत्ते त्ति मनोनिरोधवान् ।
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