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श.२ः उ.१: सू.५५ २३६
भगवई गप्त का अर्थ है संरक्षित। वृत्तिकार ने इसे मनोगप्त आदि का का अपाय करना, स्वयोग्यदान अथवा संयत को ज्ञान आदि का निगमन बतलाया है।' किन्तु दशवकालिक की चूर्णियों के आधार पर दान। इसका विशेष अर्थ ज्ञात होता है। वह इस प्रकार है
__ 'अकरणीय कार्य में लज्जा करना' मुनि के चरित्र का एक 'गरू के वचन में दत्तावधान' और 'प्रयोजनवश बोलने विशेष लक्षण है। वृत्तिकार ने लज्जु का अर्थ 'संयमी' किया है। वाला।
शंकाराचार्य ने ही का अर्थ 'अकार्य करने में लज्जा' किया है।"
वृत्तिकार ने लज्ज का वैकल्पिक अर्थ 'रन' की भांति सरल व्यवहार इन्द्रियों को सुरक्षित रखने वाला गुप्तेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य की
करने वाला किया है।" नौ गुप्तियों का सम्यक् पालन करने वाला गुप्तब्रह्मचारी होता है। इन्द्रिय-विकार से मुक्त जितेन्द्रिय होता है। भगवती के वृत्तिकार
एक गृहस्थ धन-सम्पदा को प्राप्त कर अपने आप को धन्य ने इन्द्रिय और जितेन्द्रिय के बीच एक भेदरेखा खींची है-"जिसमें
मानता है, वैसे ही मुनि आत्मिक सम्पदा को उपलब्ध कर धन्य होता इन्द्रिय-विकार का अभाव नहीं है, किन्तु उसका गोपन कर लेता है, वह गुप्तेन्द्रिय और जिसमें इन्द्रिय-विकार उत्पन्न नहीं होता है, वह
कुछ लोग असमर्थ होने के कारण सहन करते हैं अथवा उन्हें जितेन्द्रिय होता है।"
सहन करना पड़ता है। मुनि समर्थ होते हुए भी प्रतिकूल परिस्थिति __ शरीर, वचन और मन की विविध अवस्थाओं में होने वाली
को सहन करता है; इसलिए वह शान्तिक्षम कहलाता है।" प्रवृत्ति और निवृत्ति के माध्यम से मुनि के स्वरूप का चित्रण किया मुनि का हृदय अकलुषित या पवित्र होता है, इसलिए उसे गया है। ईर्या, एषणा, आदान-निक्षेप, उच्चार-प्रश्रवण और काय
शोधी कहा गया। इसका वैकल्पिक अर्थ सुहृद् हो सकता है। वह समिति-ये सब शरीर की चेष्टाएं हैं। कायगुप्ति, इन्द्रियगुप्ति और
समस्त प्राणियों के साथ मैत्री का व्यवहार करता है; इसलिए यह ब्रह्मचर्यगुप्ति—ये शारिरिक चेष्टा की निवृत्ति के प्रकार हैं। अर्थ भी संगत है।"
भाषा और वचन समिति ये भाषा की प्रवृत्ति के प्रकार हैं। वह अनिदान होता है—पौदगलिक पदार्थों की आंकाक्षा नहीं वचनगुप्ति भाषा की निवृत्ति है। मन की समिति—यह मन की प्रवृत्ति का निर्देश है। मन
मुनि आत्मा में रमण करता है। इसलिए पदार्थ के प्रति उसके की गुप्ति—यह उसकी निवृत्ति का निर्देश है। 'गुप्त' का संबंध मन
मन में औत्सुक्य नहीं होता। किसी वस्तु को देखकर यह क्या है? और वचन दोनों से हो सकता है। मुनि अपने शरीर, वचन और यह कैसी है ? यह किसकी है ? यह कैसे बनी है ? यह कहां मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का सन्तुलन बनाए-इसका सम्यग्
होती है ? आदि-आदि प्रश्नों की व्याकुलता उसमें नहीं होती। वह मार्गदर्शन दिया गया है।
उत्कंठा से मुक्त होता है। उत्तरज्झयणाणि के अनुसार यह स्थिति मुनि के लिए संग (लेप या आसक्ति) का त्याग करना
सुख की स्पृहा का निवारण करने पर प्राप्त होती है।" आवश्यक है। स्वामी कार्तिकेय ने संग को तीन उदाहरणों के द्वारा मुनि की भावधारा संयम में अन्तर्लीन रहती है। इसलिए वह समझाया है--मिष्ट भोजन, रागद्वेष उत्पन्न करने वाली वस्तुएं और __ 'अबहिर्लेश्य' कहलाता है। ममत्व के वासस्थान—इनको छोड़ना त्याग है। उपाध्याय विनयविजय मुनि सम-समानता की अनुभूति, शम–शान्ति, क्लमने शान्तसुधारसभावना में भी त्याग की यही परिभाषा की है। तपस्या में रत होता है, उसका श्रामण्य अतिशायी बनता है; इसलिए
अकलंक ने त्याग के तीन अर्थ किए है—सन्निधि या संग्रह उसे 'सुश्रामण्यरत' कहा जाता है।
करता।"
१. भ.वृ.२१ –'गुत्तेति मनोगुप्तत्वादीनां निगमनम् । २. दसवे.अ.चू.पृ.१६६ मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो। ३. दसवे.जि.चू,पृ.२८५-वायाए कजमेत्तं भासंतो। ४. भ.वृ.२।५५-'गुत्तिदिए' त्ति 'गुत्तबंभयारी'त्ति गुप्तं ब्रह्मगुप्तियुक्तं ब्रह्म
चरति यः स। ५. वही,२१५५-'जितेन्द्रिय' इन्द्रयविकाराभावात, यच्च प्राग गुप्तेन्द्रिय इत्यक्तं
तदिन्द्रियविकारगोपनमात्रेणापि स्यादिति विशेषः। ६. वही,२/५–'चाइ'त्ति सङ्गत्यागवान् । ७. बारस अणुवेक्खा,गा. ४०१
जो चयदि मिट्ठभोजं, उवयरणं राय-दोस-संजणयं ।
वसदि ममत्तहेर्दू, चायगुणो सो हवे तस्स ॥ ५. शांतसुधारसभावना,१०।२
सत्य-क्षमा-मार्दव-शौच-संगत्यागार्जव-ब्रह्म विमुक्तियुक्तः।
६. (क) त.रा.वा.६/६,भा.२,पृ.५६८-त्यागः पुनः सन्निहितस्यापायः, दानं वा स्वयोग्यम्, अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते।
(ख) द्रष्टव्य, ठाणं, १०।१६ का टिप्पण। १०. सनत्सुजातीय, शांकरभाष्य, २०१६-ही:-अकार्यकरणे लज्जा । ११. भ.वृ.२। 'लज्जुत्ति संयमवान् रज्जुरिव वा रज्जुः अवक्रव्यवहारः। १२. वही,२१५५---'धन्ने'त्ति धन्यो-धर्मधनलब्धेत्यर्थः । १३. वही,२१५५-'खंतिखमे'त्ति क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्ति
क्षमः। १४. वही,२।५५–'सोहिए'त्ति शोभितः शोभावान् शोधितो वा निराकृताति
चारत्वात्, सौहृदं-मैत्री सर्वप्राणिषु तद्योगात्सौहृदो वा । १५. वही,२।५५–'अणियाणे'त्ति प्रार्थनारहितः। १६. वही,२।५५–'अप्पुसुएत्ति अल्पौत्सुक्यः त्वरारहितः। १७. उत्तर.२६।३० अप्पडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगत्तं जणयइ । निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असञ्जमाणे अपडिबद्धे यावि विहरइ।
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