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भगवई
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श.२: उ.१: सू.५५-५६ मुनि क्रोध आदि कषाय तथा इन्द्रिय और मन का निग्रह सामने रखना या उसे आगे रखकर चलना हार्दिक श्रद्धा का प्रतिफलन करता है, इसलिए वह 'दान्त' कहलाता है।
इणमेव निगं पावयणं पुरओ काउं विहरइ-इस वाक्य में पूर्ण मुनि कैसा होना चाहिए और मुनि को कैसा जीवन जीना समर्पण की अभिव्यञ्जना की गई है। नैर्ग्रन्थ प्रवचन को निरन्तर चाहिए, उसका एक सर्वांगीण चित्रण प्रस्तुत प्रकरण में हुआ है।
५६. तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः कयञ्जलायाः ५६. श्रमण भगवान् महावीर कयंजला नगरी और नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनि- नगर्याः छत्रपलाशाच् चैत्यात् प्रतिनिष्कामति, छत्रपलाश चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः मखमह. पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवय- प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपदविहारं विहरति। निष्क्रमण कर आसपास जनपद में विहार कर रहे विहारं विहरइ ॥
५७. तए णं से खदए अणगारे समणस्स ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणस्य भगवतः ५७. 'वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाइं सामायिकादिकानि एकादश अंगानि अधीते, ग्यारह अगों का अध्ययन करता है, अध्ययन अहिजइ, अहिजित्ता जेणेव समणे भगवं अधीय यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उपागच्छाति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं है, आकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दनसमणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, बंदित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर वह इस नमंसित्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते! एवमवादीद्-इच्छामि भदन्त ! युष्माभिः प्रकार बोला—भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं अभ्यनुज्ञातः सन् मासिकी भिक्षुप्रतिमाम् एकमासिकी प्रथम भिक्षु-प्रतिमा की उपसम्पदा भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। उपसंपद्य विहर्तुम् ।
स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं ॥ यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत
करो।
५८. तए णं से बंदए अणगारे समणेणं ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणेन भगवता ५८. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर
भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टः यावन् नम- की अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट चित्त वाला हुआ यावत् हढे जाव नमंसित्ता मासियं भिक्खुपडिमं स्थित्वा मासिकी भिक्षुप्रतिमाम् उपसंपद्य वह भगवान् को नमस्कार कर मासिकी भिक्षुप्रतिमा उवसंपज्जित्ता णं विहरइ॥ विहरति ।
की उपप्सम्पदा स्वीकार कर विहार कर रहा है।
५९. तए णं से खंदए अणगारे मासियं ततः सः स्कन्दकः अनगारः मासिकी ५६. वह स्कन्दक अनगार मासिकी भिक्षुप्रतिमा भिक्खुपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं भिक्षुप्रतिमां यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग का यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातत्त्व, अहातचं अहासम्म सम्मं कारण फासेइ यथातत्त्वं यथासाम्यं सम्यक् कायेन स्पृशति यथासाम्य सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करता पालेइ सोभेइ तीरेइ पूरेइ किट्टेइ अणुपालेइ पालयति शोधयति तीरयति पूरयति कीर्तयति है, पालन करता है, उसे शोधित करता है, पारित आणाए आराहेइ, सम्म काएण फासेत्ता अनुपालयति आज्ञया आराधयति, सम्यक् करता है, पूरित करता है, कीर्तित करता है, अनुपालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता पूरेत्ता किट्टेत्ता कायेन स्पृष्ट्वा पालयित्वा शोधयित्वा पालित करता है, आज्ञा से उसकी आराधना अणुपालेत्ता आणाए आराहेत्ता जेणेव समणे तीरयित्वा पूरयित्वा कीर्तयित्वा अनुपाल्य करता है तथा सम्यक् प्रकार से काया से उसका भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग- आज्ञया आराध्य यत्रैव श्रमणः भगवान् स्पर्श कर, उसका पालन, शोधन, पारण, पूरण, छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, ___ महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं कीर्तन, अनुपालन और आज्ञा से आराधन कर वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है, भंते ! तुभेहिं अन्भणुण्णाए समाणे दो- नमस्थित्वा एवमवादीद्-इच्छामि भदन्त ! आकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं वि- युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् द्वैमासिकी भिक्षु- करता है, बन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोलता हरित्तए। प्रतिमाम् उपसंपद्य विहर्तुम् ।
है—भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा की उपसम्पदा को स्वीकार कर विहार
करना चाहता हूँ। १. भ.वृ.२।५५–'अवहिल्लेस्से' त्ति अविद्यमाना वहि:-संयमावहिस्ता- रागद्वेषयोरन्तार्थं प्रवृत्तत्वात्, 'इणमेव त्ति इदमेव प्रत्यक्षं 'पुरो काउंति अग्रे
ल्लेश्या-मनोवृत्तिर्यस्यासाववहिर्लेश्यः; 'सुसामण्णरए'त्ति शोभने श्रमणत्वे विधाय मार्गानभिज्ञो मार्गज्ञनरमिव पुरस्कृत्य वा-प्रधानीकृत्य 'विहरति' रतोऽतिशयेन वा श्रामण्ये रतः; 'दंते'त्ति दान्तः क्रोधादिदमनात्, व्यन्तो वा आस्ते इति।
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