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श.२: उ.१: सू.५७-६० अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । तं चेव॥
यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् ।। तच्चैव।
भगवई देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। वह द्विमासिकी प्रतिमा की उपसम्पदा को स्वीकार कर उसकी आज्ञा-पूर्वक आराधना करता
६०. एवं तेमासियं, चउम्मासियं, पंचमासियं, एवं त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पाञ्चमासिकी, ६०. इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पांच
छम्मासियं, सत्तमासियं, पढमसत्तरातिदियं, पाण्मासिकी, साप्तमासिकी, प्रथमसप्तरात्रिं- मासिकी, पाण्मासिकी, साप्तमासिकी, प्रथम सात दोचसत्तरातिदियं, तबसत्तरातिदियं, राति- दिवा, द्वितीयसप्तरात्रिंदिवा, तृतीयसप्तरात्रिं- रात-दिन की, द्वितीय सात रात-दिन की, तृतीय दियं, एगरातियं॥ दिवा, रात्रिंदिवा, एकरात्रिकीम् । सात रात-दिन की, एक रात-दिन की और एक
रात की प्रतिमा स्वीकार करता है, स्वीकार कर उसकी आज्ञा-पूर्वक आराधना करता है।
भाष्य १. सूत्र ५७-६०
इन चार सूत्रों में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख है। तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुत-संपदा कुछ न्यून दस पूर्व की होनी इनका विशद वर्णन दसाओ में उपलब्ध है।' वृत्तिकार ने प्रतिमा का चाहिए।' अर्थ 'अभिग्रह-विशेष' किया है। 'प्रतिमा' शब्द की विशेष जानकारी वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है-स्कन्दक ग्यारह अंग के लिए टाणं, २।२४३-२४८ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
का अध्येता था। प्रतिभा की साधना विशिष्ट श्रुतसम्पन्न मुनि ही कर भिक्षु-प्रतिमाएं उन भिक्षुओं द्वारा आचरित होती हैं, जिनका सकता है। फिर उन्होंने प्रतिमा की आराधना कैसे की ? इसका शारीरिक संहनन सुदृढ़ और श्रुतज्ञान विशिष्ट होता है। पंचाशक के समाधान यह है-रकन्दक ने भगवान से अनुज्ञा प्राप्त कर प्रतिमा अनुसार जो मुनि विशिष्ट संहनन-सम्पन्न, धृति-सम्पन्न और शक्ति-सम्पन्न की आराधना की थी। केवली की उपस्थिति में श्रुत का नियम लागू तथा भावितात्मा होता है, वही गुरु की आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं नहीं होता।' को स्वीकार कर सकता है। उसकी न्यूनतम श्रुत-संपदा नौवें पूर्व की
__दसाओ के अनुसार प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार है---- नाम कालमान | आहार-परिमाण प्रारंभिक तपस्या साधनास्थल
आसन
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एक-एक दत्ति दो-दो दत्तियों तीन-तीन दत्तियां चार-चार दत्तियां पांच-पांच दत्तियां छह-छह दत्तियां सात-सात दत्तिया
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१. एकमासिकी भिक्षु-प्रतिमा २. द्वैमासिकी भिक्षु-प्रतिमा ३. त्रैमासिकी भिक्षु-प्रतिमा ४. चातुर्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा ५. पाञ्चमासिकी भिक्षु-प्रतिमा ६. पाण्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा ७. साप्तमासिकी भिक्ष-प्रतिमा ८. प्रथम सात रात-दिन की भिक्षु-प्रतिमा ६. द्वितीय सात रात-दिन की भिक्षु-प्रतिमा १०. तृतीय सात रात-दिन की भिक्षु-प्रतिमा ११. अहोरात्रिकी भिक्ष-प्रतिमा १२. एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा
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एकमास दो मास तीन मास चार मास पांच मास छह मास सात मास सात दिन-रात सात दिन-रात सात दिन-रात एक दिन-रात एक रात
आरामगृह, शुन्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आसनगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आराभगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षभूल
गांव आदि के बाहर उत्तान, पावशयन, निषद्या गांव आदि के बाहर | दण्डायत, लगुडशयन, उकडू गांव आदि के बाहर गादोहिका, वीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के बाहर गोदोहिका, बीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के थाहर | कायोत्सर्ग आदि
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चतुर्थ भक्त चतुर्थ भक्त चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त अश्म भक्त
शब्द मर्यादा या व्यवस्था का सूचक है। मार्ग' शब्द पद्धति के अनुसरण का सूचक है। 'तत्त्व' शब्द प्रतिमा के वास्तविक स्वरूप का सूचक है। 'सान्य' शब्द समभाव का सूचक है।'
शब्द-विमर्श
यवासूत्र....यथासाम्य-इन पांच पदों में प्रतिमा की विधि का निर्देश दिया गया है। 'सूत्र' शब्द विधिसूत्र का सूचक है। 'कल्प' १. दसाओ,७।१-३५। २. भ.व.२।५६ भिक्षूचितमभिग्रहविशेषम् । ३. श्रीपंचाशक,१८१४,५
पडिवाइ एयाओ संघयणं घिइजुओ महासत्तो। पडिमाओ भावियप्पा, सम्म गुरुणा अणुण्णाओ॥ गच्छे चिअ-निम्माओ, जा पुव्व दस भवे असंपुण्णा ।
णवमस्स तइय वत्थू, होइ जहण्णो सुयाहिगभो ।। ४. भ.वृ.२१५६ नन्वयमेकादशाङ्गधारी पठितः, प्रतिमाश्च विशिष्टश्रुतवानेव करोति, यदाह
"गच्छे च्चिय णिम्माओ जा पुब्बा दस भवे असंपुण्णा ।
नवमस्स तइयवत्थू होइ जहण्णो सुयाहिगमो ।' इति कथं न विरोधः ? उच्यते, पुरुषान्तरविषयोऽयं श्रुतनियमः, तस्य तु
सर्वविदुपदेशेन प्रवृत्तत्वान्न दोष इति। ५. वही,२१५६–'अहासुत्तति सामान्यसूत्रानतिक्रमेण 'अहाकप्पं'ति प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमेण वा 'अहामग्गं'ति ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा 'अहातचंति यथातत्त्वं तत्त्वानतिक्रमेण मासिकी भिक्षुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलङ्घनेनेत्यर्थः । 'अहासम्मति यथासाम्यं समभावानतिक्रमेण ।
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