________________
भगवई
२. सामायिक आदि ग्यारह अंग
ग्यारह अंगों में पहला अंग आयारो है। प्रस्तुत सूत्र में 'सामायिक आदि ग्यारह अंग' का उल्लेख किया गया है। यह सामायिक क्या है ? वृत्ति में इसकी कोई व्याख्या नहीं है । प्रसंग के अनुसार सामायिक को आयारो ( आचारांग) का पर्यायवाची नाम माना जा सकता है। आयारो में सामायिक समता का ही प्रतिपादन है ।
वृत्तिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-पांचवें अंग में स्कन्दक का चरित उपलब्ध है। यदि उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तो, पांचवें अंग में स्कन्दक-चरित कैसे मिलता ?
वृत्तिकार ने इसके समाधान में लिखा है- भगवान् महावीर के तीर्थ में नौ वाचनाएं थीं। उनमें स्कन्दक -चरित में अभिधेय अर्थ किसी दूसरे व्यक्ति के चरित्र द्वारा प्रतिपादित किए गए थे। सुधर्मा स्वामी ने अपनी वाचना में फिर स्कन्दक चरित्र को स्थान दिया । इसलिए स्कन्दक द्वारा ग्यारह अंगों के अध्ययन में और वर्तमान
६१. तए णं से खंदए अणगारे एगरातियं भिक्खुपडिमं अहासुतं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी -- इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्मणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपत्ति णं विहरित्तए । अहा देवाप्पिया ! मा पडिबंधं ॥
६२. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे
तुट्ठे जाव नमसित्ता गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपत्ति णं विहरति, तं
२३६
श.२ः उ.१: सू.५७-६२
पांचवें अंग के स्कन्दक- प्रकरण में कोई विरोध नहीं है। इसका दूसरा विकल्प यह बताया है—गणधर अतिशायी ज्ञान वाले थे। उनके द्वारा भविष्य में होने वाले चरित्र का प्रतिपादन भी किया जा सकता है । '
जहा
पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणं अवाउडे ।
Jain Education International
वृत्तिकार का यह समाधान अत्यन्त श्रद्धाभिषिक्त है। आगम - रचना के इतिहास की दृष्टि से विचार करें, तो यह प्रश्न कोई जटिल नहीं है। भगवान् महावीर के समय में ग्यारह अंगों का जो स्वरूप था वह आज उपलब्ध नहीं है। आज जो ग्यारह अंग उपलब्ध हैं, वे देवर्धिगणी द्वारा संकलित वाचना के हैं। इनकी पूर्ववर्ती ग्यारह अंगों से तुलना नहीं की जा सकती। इनमें उत्तरवर्ती अनेक घटनाएं संकलित हैं। जमालि के प्रकरण में भी सामायिक आदि ग्यारह अंगों के अध्ययन का उल्लेख है' और प्रस्तुत आगम में उसका चरित्र भी निरूपित है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्वीकार करना अधिक संगत होगा कि प्रस्तुत आगम में स्कन्दक और जमालि के चरित उत्तरकाल में संकलित किए गए हैं।
ततः सः स्कन्दकः अनगारः एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमां यथासूत्रं यावद् आराध्य यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्
इच्छामि भदन्त ! युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् गुणरत्नसंवत्सरं तपःकर्म उपसम्पद्य विहर्तुम् । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् ।
ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टः यावन् नमस्थित्वा गुणरत्नसंवत्सरं तपःकर्म उपसम्पद्य विहरति, तद्यथा
१. भ. वृ.२ । ५७ --एक्कारस अंगाई अहिज्जइति इह कश्चिदाह - नन्वनेन स्कन्दकचरितात्प्रागेवैकादशाङ्गनिष्पत्तिरवसीयते, पञ्चमाङ्गान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमिदमुपलभ्यते इति कथं न विरोधः ? उच्यते, श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचनाः, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते । स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यमङ्गीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्द
प्रथमं मासं चतुर्थचतुर्थेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा दिवा स्थानोत्कुटुकः सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् आतापयन्, रात्रौ वीरासनेन अप्रावृतेन च ।
६१. वह स्कन्दक अनगार एक रात की भिक्षुप्रतिमा की यथासूत्र यावत् आराधना कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आता है, आकर श्रमण भगवान् महावीर को बन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन- नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलाभन्ते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर गुणरत्नसंवत्सर तपःकर्म की उपसम्पदा स्वीकार कर बिहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
For Private & Personal Use Only
६२. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्तकर हष्टतुष्ट चित्त वाला हुआ यावत् नमस्कार कर गुणरल संवत्सर तपःकर्म' की उपसम्पदा स्वीकार कर विहार करता है, जैसे
प्रथम मास में विना विराम' (एकान्तर ) चतुर्थचतुर्थभक्त (एक-एक दिन का उपवास) तपःकर्म करता है, दिन में स्थान —— कायोत्सर्ग-मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापनभूमि में आतापना लेता है और रात्रि वीरासन में बैठता है, निर्वस्त्र रहता है।
कचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृतेति न विरोधः । अथवा सातिशायित्वाद् गणधराणामनागतकालभाविचरितनिबन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षयाऽतीतकालनिर्देशोऽपि न दुष्ट इति ।
२. ठाणं ७ । १४०, १४१ ।
३. भ. ६।२१५ ।
www.jainelibrary.org