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________________ भगवई २५३ श.२ः उ.२ः सू.७४ नुसार दूसरी बार गई, तो गुफा में स्थूलभद्र बैठे थे। पृथक्त्व-विक्रिया-अपने शरीर से भिन्न प्रासाद, मण्डप आदि का निर्माण करना।' विशेष विवरण के लिए देखें, भगवती, ३१४ का भाष्य। तैजस समयात तेजोलब्धि-सम्पन्न पुरुष अपने आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर प्रक्षेपण करता है। वे चौड़ाई और मोटाई में शरीर-प्रमाण होते हैं तथा लम्बाई में संख्यात योजन प्रमाण दण्ड का निर्माण करते हैं। प्रयोक्ता पुरुष तैजस शरीर नाम कर्म के पुद्गलों का परिशाटन और तद्योग्य अन्य पुद्गलों का ग्रहण कर तेजोलेश्या का प्रयोग करता है। इसका उद्देश्य होता है-अनुग्रह और निग्रह करना। अनुग्रह के लिए शीतल तेजोलेश्या और निग्रह के लिए उष्ण तेजोलेश्या का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक विज्ञान परमाणु-शक्ति का उपयोग निर्माण और ध्वंस दोनों के लिए कर रहा है, वैसे ही तेजोलब्धि भी निर्माण और ध्वंस दोनों के लिए प्रयुक्त की जाती थी। तैजस समुद्घात का प्रयोग करने वाला तैजस शरीर नाम कर्म का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। आहारक समुद्घात आहारक लब्धि से सम्पन्न मुनि आहारक शरीर का निर्माण करने के लिए अपने आत्म-प्रदेशों का बाहर प्रक्षेपण करता है। वे चौड़ाई और मोटाई में शरीर-प्रमाण होते हैं तथा लम्बाई में संख्यात योजन प्रमाण दण्ड का निर्माण करते हैं। प्रयोग करने वाला पूर्वबद्ध आहारक शरीर नाम कर्म के पुद्गलों का परिशाटन और तद्योग्य अन्य पुद्गलों का ग्रहण कर आहारक शरीर का निर्माण करता है। सिद्धसेन गणी के अनुसार उस शरीर का जघन्य प्रमाण एक रलि-बंधी मुट्ठी वाले हाथ जितना और उत्कृष्ट प्रमाण पूरे हाथ जितना।" आहारक शरीर के निर्माण का प्रयोजन ___ तत्त्वार्थ भाष्य के अनुसार इसका प्रयोजन है-सन्देहनिवारण। आहारक लब्धि-सम्पन्न चतुर्दश पूर्वधर मुनि किसी अत्यन्त गहन विषय में संदिग्ध हो जाता है, तब सन्देह-निवारण के लिए वह आहारक शरीर का निर्माण कर उसे केवली के पास संप्रेषित करता है। वह अपने सन्देह का समाधान पाकर फिर अपने मूल शरीर में आ तदवस्थ हो जाता है।" सिद्धसेन गणी ने चतुर्दशपूर्वी की दो श्रेणियों का उल्लेख किया है-भिन्नाक्षर और अभिन्नाक्षर। जिसे प्रत्येक अक्षर के श्रुतगम्य पर्यायों का भित्र अथवा परिस्फुट ज्ञान होता है, वह 'भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी' कहलाता है। वहीं श्रुतकेवली कहलाता है। उसके मन में श्रुतज्ञान-विषयक कोई संशय नहीं होता, इसलिए वह आहारक समुद्घात का प्रयोग नहीं करता। अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी को अक्षर-पर्यायों का परिस्फुट ज्ञान नहीं होता; इसलिए वह श्रुत-विषयक अर्थ का सन्देह उत्पन्न होने पर यदि आहारक लब्धि सम्पन्न हो, तो उसका प्रयोग कर लेता है।' भट्ट अकलंक ने आहारक समुदघात के प्रयोग के तीन प्रयोजनों का निर्देश किया है: १.आहारक लब्धि के सद्भाव का ज्ञान २.सूक्ष्म पदार्थ का निर्धारण ३.संयम-परिपालन ।' घवला और द्रव्यसंग्रह की टीका में आहारक समुद्घात के विषय में कुछ विशेष तथ्य उपलब्ध हैं। घवला के अनुसार-आहारक समुद्घात के प्रयोग से निर्मित आहारक शरीर एक हस्त प्रमाण, सर्वांग सुन्दर, समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त, हंस के समान धवल, रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र-इन सात धातुओं से रहित, विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओं से मुक्त, वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्वतों में से गमन करने में दक्ष तथा मस्तक से उत्पन्न होता है।' द्रव्यसंग्रह की टीका के अनुसार--आहारक समुद्घात का प्रयोग करने वाला अपने मस्तिष्क से एक निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकालता है। वह पुतला जहां कहीं केवली होते हैं, वहां संशय का निवारण कर, प्रश्नकर्ता को समाधान दे, पूनः अपने शरीर में प्रवेश कर जाता है। आहारक समुद्घात का प्रयोग करने वाला आहारक शरीर नाम कर्म पदगलों का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। केवली समुद्घात-आयुष्य कर्म की स्थिति और दलिकों से जब वेदनीय कर्म की स्थिति और दलिक तथा नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और दलिक अधिक होते हैं, तब उनको आपस में बराबर १. त.रा.वा.२।४६, पृ.१५२-विविधकरणं विक्रिया । सा द्वेधा एकत्वविक्रिया कैकमक्षरं श्रुतज्ञानगम्यपर्यायैः सत् कारिकाभेदेन भिन्नं वितिमिरतामितं स पृथक्त्वविक्रिया चेति। तत्रैकत्वविक्रिया स्वशरीरादपृथग्भावेन सिंहव्याघ्र- भिन्नाक्षरः, तस्य च श्रुतज्ञानसंशयापगमात् प्रश्नाभावस्ततश्चाहारकलब्धिहंसकुररादिभावेन विक्रिया। पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्ड- तामपि नैवोपजीवति बिनालम्बनेन, स एव श्रुतकेवली भण्यते, शेषः करोपादिविक्रिया। त्यकृत्नश्रुतज्ञानलाभादवीतरागत्वाच्च, अत एव केचिद् परितुष्यन्तः सूत्र२. त.सू. (भाष्यानुसारिणी टीका-सहित),२१४६,पृ.२०६-प्रमाणं चास्यावर- तो माचार्यकृतन्यासादधिकमधीयते । “अकृत्स्नश्रुतस्यर्द्धिमतः" इत्यनेन विशेषणन्यूनः पाणिरुत्कर्षेण सम्पूर्ण इति । कलापेनेति, एवंविधश्चतुर्दशपूर्वधर एव सञ्जातलब्धिस्तन्निवर्तयति। ३. वही,२१४६,पृ.२०६–कस्मिंश्चिदर्थे कृच्छ्रेऽत्यन्तसूक्ष्मे सन्देहमापनो निश्च- ५. त.रा.वा.२।४६,पृ.१५३--कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थं कदाचित् याधिगमार्थ क्षेत्रान्तरितस्य भगवतोऽर्हतः पादमूलमौदारिकेण शरीरेणाशक्य- सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च । गमनं मत्वा लब्धिप्रत्ययमेवोत्पादयति । पृष्ट्वाऽथ भगवन्तं छित्रसंशयः पुन- ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा.१,पृ.२६६ । रागत्य व्युत्सृजत्यन्तर्मुहूर्तस्य । ७. वही,भा.१,पृ.२६६। ४. वही,२१४६,पृ.२०६- स च द्विविधः भिन्नाक्षरोऽभिन्नाक्षरश्च, ते च यस्यै Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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