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श.१: उ.१: सू.१६-२४
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भगवई
सकता है ?
पौद्गलिक वर्गणाओं के मुख्य आठ प्रकार हैं-१. औदारिक 'नहीं, आवुस !
वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा ३. आहारक वर्गणा ४. तैजस वर्गणा
५.भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा ७. मनोवर्गणा ८. कार्मण 'तो क्या मानते हो आबुसो ! निगठो ! जो यह अल्प-वेदनीय
वर्गणा। कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) बहु-वेदनीय किया जा सकता है ?
इस प्रकार वर्गणाओं के अनेक प्रकार हैं। 'नहीं, आवुस !'
४. आहार-पुद्गल-वर्गणा 'इस प्रकार आवुसो ! निगंठो ! जो यह वेदनीय कर्म है, क्या औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों तथा छहों वह उपक्रम से (या प्रधान से ) अवेदनीय किया जा सकता है?' पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण का नाम आहार है। यह आचार्य "नहीं, आवुस!'
अकलंक की परिभाषा है। पञ्चसंग्रह के अनुसार औदारिक आदि
तीन शरीरों की वर्गणा तथा भाषावर्गणा और मनोवर्गणा के योग्य 'ऐसा होने पर आयुष्मान् निगंठों का उपक्रम निष्फल हो जाता
पुद्गलों को ग्रहण करने वाला आहारक कहलाता है। इस परिभाषा है, प्रधान निष्फल हो जाता है।''
के अनुसार भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण करना भी २. सूत्र १६
आहार है। इससे यह फलित होता है कि आहारक की व्याख्या में सूत्र १६ से आगे अनेक सूत्रों में अणु और बादर शब्द का
___ आहार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। प्रयोग हुआ है। अणु का अर्थ है सूक्ष्म और बादर का अर्थ है 'कर्म प्रकृति' में तीन शरीर की वर्गणा के ग्रहण को आहार स्थूल । कर्म-पुद्गल चतुःस्पर्शी होने के कारण सूक्ष्म होते हैं, उनकी बतलाया गया है। स्थूल परिणति नहीं होती। आहार-द्रव्य के पुद्गल अष्टस्पर्शी होने के
ये परिभाषाएं ओज आहार की अपेक्षा से की गई हैं। कारण केवल स्थूल होते हैं,उनकी सूक्ष्म परिणति नहीं होती। इस
जो खाया-पिया जाता है, वह आहार है, यह सामान्य धारणा अवस्था में कर्म-पुद्गलों को स्थूल और आहार-पुद्गलों को सूक्ष्म सापेक्ष
है। विमर्श करने पर इसका अर्थ बहुत व्यापक है। आहार के चार दृष्टि से कहा गया है। वृत्तिकार ने उस अपेक्षा का स्पष्टीकरण किया
प्रकार हैं-ओज आहार, लोम आहार, प्रक्षेप आहार, मनोभक्ष्य है। उसके अनुसार कर्म-द्रव्य की सूक्ष्मता और स्थूलता कर्मपुद्गलों की अपेक्षा से है, किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा से नहीं। इसी
आहार।" ओज आहार तैजस और कर्म-शरीर के द्वारा ग्रहण किया प्रकार आहार-पुद्गलों की सूक्ष्मता और स्थूलता भी स्ववर्गणा की
जाता है। कोई प्राणी मृत्यु के पश्चात् दूसरे जन्म-स्थल में पहुंचकर अपेक्षा से है, किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा से नहीं।
सर्वप्रथम आहार लेता है, वह ओज आहार कहलाता है।" उस
समय उस प्राणी के स्थूल शरीर नहीं होता, इसलिए वह तैजस शरीर ३. कर्म-पुद्गल-वर्गणा
और उसके सहवर्ती कर्म शरीर के द्वारा ग्रहण किया जाता है। वर्गणा का अर्थ है समान जाति वाले तत्त्वों का वर्गीकरण। औदारिक या वैक्रिय शरीर के निष्पत्तिकाल में औदारिक मिश्र या जीव और पुद्गल दोनों की अपनी-अपनी वर्गणाएं होती हैं। ठाणं । वैक्रिय मिश्र का योग भी उसमें प्राप्त होता है।" औदारिक या वैक्रिय में इसका विशद वर्णन मिलता है। वहां पहले जीवों की अनेक शरीर की पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् प्राणियों के लोम आहार होता वर्गणाएं बतलाई गई हैं।' उसके पश्चात परमाण और स्कन्धों की है। यह त्वचा (स्पर्शनेन्द्रिय) के द्वारा जीवनपर्यन्त निरन्तर गृहीत वर्गणाएं निर्दिष्ट हैं।"
होता है। प्रक्षेप आहार मुख के द्वारा गृहीत होने वाला आहार है।
१. मज्झिम निकाय, देवदत्तसुत्त, ३।१।१। २. भ.वृ.१1१६-ततश्चाणवश्च बादराश्च, सूक्ष्माश्च स्थूलाश्चेत्यर्थः। सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चैषां कर्मद्रव्यापेक्षयैवावगन्तव्यं, नान्यापेक्षया, यत औदारिकादि
द्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति । ३. ठाणं,१1१४१२२६। ४. वही,१।२३०२४७। ५. वि.भा.गा.६२७–ओराल-विउब्बाहार-तेय-भासाणपाण-मण-कम्मे। ६. कर्मप्रकृति,१६,२०
अग्गहणंतरियाओ, तेयगभासामणे य कम्मे च । धुवअधुवअच्चित्ता, सुत्रा चउअंतरेसुप्पिं ।। पत्तेगतणुसु बायर-सुहभनिगोए तहा महाखंधे।
गुणनिष्फत्रसनामो, असंखभागंगुलवगाहो ।। ७. त.रा.वा.२।३०।४,पृ.१४० -त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्य
पुद्गलग्रहणमाहारः। . पं.सं.(दि.)१ । १७६ -
आहारइ सरीराणं तिण्हं एक्कदरवग्गणाओ य।
भासा मणस्स णिययं तम्हा आहारओ भणिओ।। ६. कर्मप्रकृति,गा.१५-~
......आहारगवग्गणा तितणू॥ १०. पण्ण.२८/१०२-१०५। ११. प्रज्ञा.वृ.प.५१०-ओजः उत्पत्तिदेश आहारयोग्यपुद्गलसमूहः । १२. सूत्र.वृ.प.८७-तैजसेन शरीरेण तत्सहचरितेन च कार्मणेनाभ्यां द्वाभ्यामप्याहारयति यावदपरमौदारिकादिकं शरीरं न निष्पद्यते, तथा चोक्तम्
तेएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ।।
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