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भगवई
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श.१: उ.१: सू.१६-२४
मुख्य दो प्रकृतियां-दर्शनमोह और चारित्रमोह का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता।
निपत्ति–वीर्यविशेष के द्वारा कर्म को उद्वर्तना और अपवर्तना के अतिरिक्त शेष करणों के अयोग्य बना देना।
निकाचना-वीर्यविशेष के द्वारा कर्म को उस अवस्था में व्यवस्थापित करना, जो उद्वर्तना आदि किसी भी करण के द्वारा बदला न जा सके; जो अवश्य भोगा जाए।'
कर्मशास्त्र में बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तना , अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना ये आठ करण माने जाते हैं।'
प्रस्तुत प्रकरण में अपवर्तना, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना इन चार करणों का उल्लेख है। वृत्तिकार ने उपलक्षण से उद्वर्तना का ग्रहण किया है।
_इस विषय की विशेष जानकारी के लिए ठाणं, ४।२६०-२६६, के टिप्पण ७०-७६ द्रष्टव्य हैं।
महावीर का दर्शन आत्मवादी दर्शन है। आत्मवादी दर्शन के तीन मुख्य फलित हैं-१. पुरुषार्थवाद २. कर्मवाद ३. पुनर्जन्मवाद ।
पुरुषार्थवाद ईश्वर-कर्तृत्व का अस्वीकार है। ईश्वर कर्तृत्व और पुरुषार्थ दोनों की एक-साथ सार्थकता सिद्ध नहीं होती। यदि ईश्वर-कर्तृत्व है तो पुरुषार्थ व्यर्थ होगा और यदि पुरुषार्थ की सार्थकता है, तो ईश्वर-कर्तृत्व अर्थहीन बन जाएगा। ईश्वर-कर्तृत्व के आधार पर प्राणी-जगत में होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या नहीं की जा सकती; इसलिए भगवान् महावीर ने पुरुषार्थ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। यह आत्म-कर्तृत्ववाद है। प्रत्येक आत्मा अपने वीर्य के द्वारा कुछ करता है और उसका परिणाम भुगतता है।
आत्मा के द्वारा जो कुछ किया जाता है वह कर्म है। कर्म का एक अर्थ है प्रवृत्ति और उसका दूसरा अर्थ है प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा के साथ कर्मप्रायोग्य पुद्गलों का बंध या संबंध।
पुरुषार्थवाद और कर्मवाद में विरोध प्रतीत होता है। यदि प्राणी जगत् में होने वाला परिवर्तन कर्म के द्वारा सम्पादित होता है, तो पुरुषार्थ की व्यर्थता सिद्ध होगी और यदि वह पुरुषार्थ के द्वारा सम्पादित होता है, तो कर्म की व्यर्थता हो जायेगी। इस विरोध का भगवान् महावीर ने परिहार किया। उनका दर्शन है कि कर्म पुरुषार्थ के द्वारा किया जाता है। पुरुषार्थ कर्म के द्वारा नहीं किया जाता । इसलिए प्राणी-जगत में होने वाले परिवर्तन का मूल हेतु पुरुषार्थ है। कर्म उसका गौण हेतु है। पुरुषार्थ के द्वारा किये हुए कर्म को भी बदला जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में बदलने के चार नियम निर्दिष्ट हैं-उदीरणा, अपवर्तना, उद्वर्तना और संक्रमण ।
पुरुषार्थ की भी सीमा है। उसके द्वारा सब कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ कर्म अपरिवर्तनीय भी हैं, जैसे—निकाचित कर्म परुषार्थ के द्वारा बदला नहीं जा सकता। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में
पुरुषार्थ और कर्म की सीमा-विषयक एक नया दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। वह यह है कि पुरुषार्थ और कर्म दोनों सापेक्ष हैं। कर्म सर्वशक्तिसम्पन्न नहीं है। पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन किया जा सकता है। पुरुषार्थ भी सर्वशक्तिसम्पन्न नहीं है। निकाचित कर्म को बदलने के लिए वह अकिञ्चित्कर हो जाता है। इसलिए दोनों की शक्ति सापेक्ष है, कहीं कर्म बलवान् है और कहीं पुरुषार्थ ।
बौद्ध साहित्य में निर्ग्रन्थों के मुंह से संक्रमण-विरोधी तथा परिवर्तन-विरोधी बातें कहलाई गई हैं, जैसे—“और फिर भिक्षुओ! मैं उन निगंठों को ऐसा कहता हूं तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह इसी जन्म में वेदनीय (भोगा जाने वाला) कर्म है, वह उपक्रम से (या प्रधान से) संपराय (दूसरे जन्म में) वेदनीय किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !'
और जो यह जन्मान्तर (संपराय) वेदनीय कर्म है, वह-उपक्रम से (या प्रधान से) इस जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ?
'नहीं,आवुस !
'तो क्या मानते हो, आवुसो ! निगंठो ! जो यह सुख-वेदनीय (सुख भोग करने वाला) कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) दुःखवेदनीय किया जा सकता है ?
'नहीं,आवुस !
'तो क्या मानते हो, आवुसो निगंठो ! जो यह दुःख वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) सुख-वेदनीय किया जा सकता है ?
'नहीं, आवुस !'
'तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह अवेदनीय कर्म है, क्या उपक्रम से (या प्रधान से) वेदनीय किया जा सकता है?'
'नहीं, आवुस !'
'तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह परिपक्क अवस्था (बुढ़ापा) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) अपरिपक्व वेदनीय किया जा सकता है ?'
'नहीं,आवुस !
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह अपरिपक्क (शैशव,जवानी) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) परिपक्व-वेदनीय किया जा सकता है ?
'नहीं, आवुस !
'तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह बहु-वेदनीय कर्म है. क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) अल्प-वेदनीय किया जा
उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई ॥ ३. भ.वृ.१।२४-अपवर्तनस्य चोपलक्षणत्वादुद्वर्तनमपीह दृश्य, तच्च स्थित्या
देवृद्धिकरण-स्वरूपम्।
१. भ.वृ.१1१६ २. कर्मप्रकृति, बंधनकरण, गा.२--
बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अवचट्टणा उदीरणया।
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