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श.१: उ.१: सू.१६-२४
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भगवई
२२. नेरइया णं भंते ! कइविहे पोग्गले उदी- नैरयिकाः भदन्त ! कतिविधान् पुद्गलान् २२. भन्ते ! नैरयिक जीव पुद्गलों की उदारणा रेति ? उदीरयन्ति ?
कितने प्रकार की करते हैं ? गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच दुविहे गौतम ! कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधान् गौतम ! कर्म-पुद्गल-वर्गणा की अपेक्षा से दो पोग्गले उदीरेंति, तं जहा–अणू चेव, पुद्गलान् उदीरयन्ति, तद् यथा अणूंश्चैव, प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, जैसेबादरा चेव ।। वादरांश्चैव।
अणु और बादर।
२३. सेसा वि एवं चेव भाणियबा-वेदेति, निजरेंति॥
शेषाः अपि एवं चैव भणितव्याः-वेदयन्ति, २३. शेष सूत्र भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं—वेदन निर्जीरयन्ति।
करते हैं, निर्जरा करते हैं।
२४. एवं ओयडेसु, ओयडेति, ओयट्टिस्संति।
करेंगे।
संकामिंस, संकाति, संकामिस्संति। निहत्तिंसु, निहत्तेंति, निहत्तिस्संति।
एवम् अपावर्तिषत, अपवर्तन्ते, अपवर्ति- २४. इसी प्रकार अपवर्तन किया था, करते हैं और ष्यन्ते। समक्रामिषुः, संक्रामन्ति, संक्रमिष्यन्ति। संक्रमण किया था, करते हैं और करेंगे। अनिधत्तयिषुः, निधत्तयन्ति, निधत्तयि- निधत्तन किया था, करते हैं और करेंगे। ष्यन्ति। अनिकाचयिषः, निकाचयन्ति, निकाचयि- निकाचन किया था, करते हैं और करेंगे। ष्यन्ति। संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा
निकाएंसु, निकायंति, निकाइस्संति।
संगहणी गाहा भेदिया चिया उवचिया, उदीरिया वेदिया य निजिण्णा।
ओयट्टणसंकामणनिहत्तणनिकायणे तिविहकालो॥१॥
भेदिताः चिताः उपचिताः, उदीरिताः वेदिताश्च निर्जीर्णाः । अपवर्तनसंक्रमणनिधत्तननिकाचनानि त्रिविधकालः ।।
भेदित, चित, उपचित, उदीरित, वेदित, निजीर्ण, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन-- इन पदों के साथ अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों काल वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र १६-२४
सोलहवें सूत्र से चौबीसवें सूत्र तक कुछ विशिष्ट शब्द प्रयुक्त हुए हैं—परिणमन, भेद, चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, निर्जरा, अपवर्तना, उद्वर्तना, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना।
परिणमन अवस्थान्तर होना। भेद-पृथक् होना। चय, उपचय–वृद्धि, अतिवृद्धि । उदीरणा आदि सभी पद कर्न-पुद्गलों से सम्बद्ध हैं
उदीरणा—जो कर्म-पुद्गल अनुदित हैं, उनका परिणामविशेष के द्वारा उदय-प्राप्त कर्मदलिकों में प्रक्षेप कर देना।
वेदना-उदय-प्राप्त कर्म-पुद्गलों का जब तक उनका अनुभाग। या रसविपाक समाप्त न हो जाए, तब तक अनुभव करना।
निर्जरा-वेदना के पश्चात पदगलों का जीव-प्रदेशों से पृथक होना।
भोगे हुए पुद्गल वेदित और पृथक् हुए पुद्गल निर्जीर्ण कहलाते हैं।
अपवर्तना----वीर्यविशेष के द्वारा कर्म की स्थिति और अनुभाग को कम करना। ___उद्वर्तना–वीर्यविशेष के द्वारा कर्म की स्थिति और अनुभाग को बढ़ा देना।
संक्रमण-वीर्यविशेष के द्वारा सजातीय कर्म-प्रकृतियों का एक दूसरे में संक्रान्त होना। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशये चारों एक रूप से दूसरे रूप में संक्रान्त हो जाते हैं। जैसे कोई व्यक्ति सातवेदनीय कर्म का अनुभव कर रहा है, उस समय उसके अशुभ कर्म की परिणति प्रबल हो गई; परिणामस्वरूप सातवेदनीय असातवेदनीय में संक्रान्त हो गया।'
___संक्रमण के कुछ अपवाद हैं—आयुष्य कम की चार उत्तर प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। इसी प्रकार मोह कर्म की
१.भ.वृ.१।२४-यथा कस्यचित् सद्वेद्यमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता
येन तदेव सद्वद्यमसद्वेद्यतया संक्रामतीति ।
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