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________________ भगवई १६३ श.१: उ.१०. स.४४४-४४६ भाष्य १. सूत्र ४४४,४४५ प्रस्तुत आलापक में कर्मबंध के हेतु की मीमांसा है। केवल का एक साथ होना संभव नहीं है। यह भगवान महावीर का दर्शन काययोग के प्रत्यय (परिणामी कारण) से होने वाले कर्मबंध का नाम है। कुछ दार्शनिक दोनों क्रियाओं का एक साथ होना मानते थे। है-ऐर्यापथिकी क्रिया और कषाय के प्रत्यय से होने वाले कर्मबन्ध सूत्र में उनका नाम-निर्देश नहीं है। किंतु प्रकरण की दृष्टि से यह का नाम है साम्परायिकी क्रिया।' अवीतराग प्राणी के साम्परायिकी ___प्रतीत होता है कि यह किसी श्रमण-सम्प्रदाय का अभिमत है। बौद्ध क्रिया होती है और वीतराग के ऐपिथिकी क्रिया। एक अकषायोदय साहित्य में ईर्यापथ शब्द का प्रयोग मिलता है। आजीवक-सम्प्रदाय से प्रभव है और दूसरी कषायोदय से प्रभव है; इसलिए इन दोनों में इस अभिमत की सम्भावना की जा सकती है। उपपात-पदं उपपात-पदम् उपपात-पद ४४६. निरयगई णं भंते ! केवतियं कालं निरयगतिः भदन्त ! कियन्तं कालं विरहिता ४४६. भन्ते ! नरक गति कितने समय तक उपपात विरहिया उववाएणं पण्णता? उपपातेन प्रज्ञप्ता ? से विरहित प्रज्ञप्त है ? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं, उक्कोसेणं __गौतम ! जघन्येन एक समयम, उत्कर्षेण गौतम ! जधन्यतः एक समय, उत्कर्षतः बारह बारस मुहत्ता॥ द्वादश मुहूर्तान् । मुहुर्त। ४४७. एवं वकंतीपयं भाणियब्वं निरवसेसं॥ एवम् अवक्रान्तिपदं भणितव्यं निरवशेषम् । ४४७. इस प्रकार अवक्रान्ति-पद (पण्णवणा, ६) अविकल रूप से वक्तव्य है। ४४८. सेवं भंते ! सेवं भंते ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद् ४४८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति । है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १. भ.वृ.१।४४४-'इरियावहिय'ति ईर्यागमनं तद्विषयः पन्थाः-मार्ग ईर्या- पथस्तत्र भवा ऐपिथिकी, केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्ध इत्यर्थः। 'संप राइयं च'त्ति संपरैति—परिभ्रमति प्राणी भवे एभिरिति संपरायाः–कषायास्तत् प्रत्यया या सा साम्परायिकी, कषायहेतुकः कर्मवन्ध इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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