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________________ भगवई २७५ पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाई लिखति, प्रतिलिख्य भाजनवस्त्राणि प्रति- पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणाई पमन्जइ, लिखति, प्रतिलिख्य भाजनानि प्रमार्जयति, पमजित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता प्रमाय॑ भाजनानि उद्गृह्णाति, उदगृह्य यत्रैव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्- एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं इच्छामि भदन्त ! भवद्भिः अनुज्ञातः सन् अब्भणुण्णाए समाणे छद्रुक्खमणपारणगंसि षष्ठक्षपणपारणके राजगृहे नगरे उच्च-नीच- रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाइं मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए । अटितुम् । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । श.२ः उ.५: सू.१०७-१०६ करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन करते हैं प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन करते हैं, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लेते हैं, लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर षष्ठभक्त के पारणा में राजगृह नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक' भिक्षाचर्या के लिए घूमना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। भाष्य १. सामुदानिक नाना घरों से ली जानेवाली भिक्षा ।' १०८. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया ततः भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवता १०८. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर की महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतः अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान महावीर के पास भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुणसि- महावीरस्य अन्तिकात् गुणशिलाच् चैत्यात् से गुणशिल चैत्य से बाहर आते हैं, बाहर आकर लाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि- प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य अत्वरितम- त्वरता-, चपलता और संभ्रम-रहित होकर युगक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर- चपलमसंभ्रान्तः युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या समिति पलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे- पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् यत्रैव राजगृह का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां सोहेमाणे जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवा- नगरं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य राजगृहे राजगृह नगर है वहां आते हैं, आकर राजगृह गच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च- नगरे उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमु- नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुनीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स दानस्य भिक्षाचर्याम् अटति । दानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। भिक्खायरियं अडइ । भाष्य १. युगप्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि २. ईर्या युग का अर्थ है-गाड़ी का जुआ। युग-प्रलोकना का अर्थ रियं का अर्थ है-ईर्या, गमन । है युगप्रमाण भूमि के अन्तर को देखनेवाली। वृत्तिकार ने 'युग' का अर्थ यूपद्ययज्ञ का स्तम्भ किया है।२ १०६. तए णं भगवं गोयमे रायगिहे नगरे ततः भगवान् गौतमः राजगृहे नगरे उच्च-नीच- १०६. भगवान् गौतम राजगृह नगर के उच्च, नीच उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षा-चर्या- और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसदं निसा- याम् अटन् बहुजनशब्दं निशमयति–एवं लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनते मेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए खलु देवानुप्रियाः ! तुङ्गिकायाः नगर्याः बहिः हैं—देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी से बाहर नयरीए बहिया पुष्फवइए चेइए पासाव- पुष्पवतिके चैत्ये पावपित्यीयाः स्थविराः पुष्पवतिक चैत्य में पार्थापत्यीय भगवान् स्थविरों व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दृष्ट्या । १. भ.वृ.२।१०७-गृहेषु समुदानं भैक्षं गृहसमुदानं तस्मै गृहसमुदानाय ।। २. भ.बृ.२१०५ युगं-यूपस्तत् प्रमाणमन्तरं-स्वदेहस्य दृष्टिपातदेशस्य च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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