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श. २: उ.५: सू. १०६, ११०
चिजा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई पुच्छिया - संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ? तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी संजमे णं अजो ! अणण्हयफले, तवे वोदाणफले, तं चेव जाव पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति । सच्चे णं एस मट्ठे, नो चेव णं आयभाववत्तव्य - याए ।
से कहमेयं मन्त्रे एवं ॥
११०. तए णं भगवं गोयमे इमीसे कहाए लट्टे समाणे जायसढे जाव समुप्पन्नको हल्ले अहापत्तं समुदाणं गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे सोहेमाणे जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता सणसणं आलोएइ, आलोएत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी एवं खलु भंते ! अहं तुम्मेहिं अब्भणाए समाणे रायगिहे नयरे उच्चनीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसद्दं निसामे—ि एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगिया नयरीए बहिया पुष्फवइए चेइए पासाचिजा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई पुछिया — संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ?
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भगवन्तः श्रमणोपासकैः इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि पृष्टाः --संयमः भदन्तः किंफलः ? तपः किं फलम् ?
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ततः ते स्थविरा: भगवन्तः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादिषु : – संयमः आर्याः ! अनास्रवफलः, तपः व्यवदानफलम्, तच्चैव यावत् पूर्वतपसा, पूर्वसंयमेन, कर्मितया, संगि तया आर्याः । देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । सत्योऽयमर्थः नो चैव आत्मभाववक्तव्यतया ।
तत् कथमेतत् मन्ये एवम् ?
ततः भगवान् गौतमः अनया कथया लब्धार्थः सन् जातश्रद्धः यावत् समुत्पन्नकुतूहलः यथापर्याप्तं समुदानं गृह्णाति, गृहीत्वा राजगृहान् नगरात् प्रतिनिष्क्रामति, अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तः युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या पुरतः ईय शोधयन्-शोधयन् यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अदूरसामन्ते गमनागमने प्रतिक्रामति, प्रतिक्रम्य एषणाम् अनेषणाम् आलोचयति, आलोच्य भक्तपानं प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्श्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद् एवं खलु भदन्त ! अहं भवद्भिः अभ्यनुज्ञातः सन् राजगृहे नगरे उच्चनीच - मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षार्यायै अन् बहुजनशब्द निशमयामि एवं खलु देवानुप्रिय ! तुङ्गकायाः नगर्याः बहिः पुष्पवतिके चैत्ये पार्श्वापत्ययाः स्थविरा: भगवन्तः श्रमणोपासकैः इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि पृष्टश:संयमः भदन्त ! किंफलः ? तपः किंफलम् ?
तं चैव जाव सच्चे णं एस मट्ठे, नो चेव तच्चैव यावत् सत्योऽयमर्थः, नो चैव आत्म
णं आयभाववत्तव्वयाए ।
तं पभू णं भंते ! ते घेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु अप्पभू ? समिया णं भंते! ते येरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयरूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु असमिया ? आउज्जिया णं भंते ! तेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु
भाववक्तव्यतया ।
तत् प्रभवः भदन्त ! ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकर्तुम् ? उताहो अप्रभवः ? सम्यञ्चः भदन्त ! ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपसकानाम् इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकर्तुम् ? उताहो असम्यञ्चः ? आवर्जिकाः भदन्त ! ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्रूपाणि
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भगवई
से श्रमणोपासकों ने ये इस प्रकार के प्रश्न पूछे भन्ते ! संयम का फल क्या है ? तप का फल क्या है ?
उन भगवान् स्थविरों ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहा—आर्यो ! संयम का फल अनानव तप का फल व्यवदान है। इसी प्रकार यावत् पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोकों में उपपन्न होते हैं । । यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। तो क्या यह ऐसे ही है ?
११०. यह कथा सुनकर भगवान् गौतम के मन में श्रद्धा यावत् कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे यथा पर्याप्त भिक्षा लेते हैं, लेकर राजगृह नगर से बाहर आते हैं, त्वरा -, चपलता और संभ्रम -रहित होकर युगप्रमाण भूमि को देखले वाली दृष्टि से ईर्ष्या-समिति का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां गुणशिलक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट रहकर गमनागमन का प्रतिक्रमण करते हैं, प्रतिक्रमण कर, एषणा और अनेषणा की आलोचना करते हैं, आलोचना कर भक्त-पान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार बोले—भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर राजगृह नगर के उच्च नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमता हुआ अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनता हूँ —देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक चैत्य में पार्श्वापत्यीय भगवान् स्थविरों से श्रमणोपासकों ने ये इस प्रकार के प्रश्न पूछे—भन्ते ! संयम का फल क्या है ? तप का फल क्या है ? इसी प्रकार यावत् यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। भन्ते ! क्या वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं ? अथवा असमर्थ हैं ? वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में योग्य' हैं ? अथवा अयोग्य हैं ? वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में दायित्वपूर्ण हैं ? अथवा दायित्वपूर्ण नहीं हैं ? वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों
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