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श.२ः उ.५ः सू.६६-१०७
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भगवई
वाला नहीं है, उसके संसार में अवस्थित रहने योग्य कर्म शेष हैं, वह पुनर्जन्म के लिए आयुष्य कर्म का बन्ध करता है । इस दृष्टि से देवत्व - प्राप्ति का एक हेतु कर्म का अस्तित्व बनता है। प्रश्न पूछा गया— देव के आयुष्य का बंध किस कर्म के उदय से होता है ? उत्तर दिया गया वह शरीरप्रयोग नाम कर्म के उदय से होता है। कर्मबंध का मूल कारण है—शरीरप्रयोग नाम कर्म का उदय । इसके अतिरिक्त देवगति-योग्य कर्म बंधने के हेतु चार बतलाए गये हैं१. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बालतपः कर्म ४. अकाम निर्जरा । ये चारों देवगति के आयुष्य-बंध के हेतु हैं। उसके बंध का कारण (साधकतम साधन या साक्षात् कारण) है-शरीरप्रयोग नाम कर्म का उदय ।
की भाषा में निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है, इसलिए संयम और निर्जरा की साधना देवगति का हेतु बनती है। प्रस्तुत प्रकरण में पूर्व संयम का प्रयोग है और संग का पृथक् उल्लेख है। भगवई तथा ठाणं और ओवाइयं में सराग संयम का उल्लेख है।' इससे यह सहज ही फलित होता है कि आयुष्य कर्म का बंध रागावस्था में ही होता है, वीतराग अवस्था में नहीं ।
शब्द-विमर्श
आयुष्य का बंध संग या राग के आस्तित्व में ही होता है; इसलिए वह भी देवत्व-प्राप्ति का एक हेतु बतलाया गया है। तात्पर्य
१०३. तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई बागरिया समाणा हट्ठट्ठा थेरे भगवंते बंदंति नमसंति, पसिणाई पुच्छंति, अट्ठाई उवादियंति, उवादिएत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया ॥
१०४. तए णं ते येरा अण्णया कयाई तुंगियाओ नयरीओ पुफ्फवतियाओ चेहयाओ पडिनिग्गच्छंति, बहिया जणवयविहारं विहरति ॥
१०५. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्या - सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया ॥
१०६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥
१०७. तए णं भगवं गोयमे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं
१. (क) भ. ८ ४२८ ।
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अनाव—यह शब्द ष्णुंकू प्रस्रवणे धातु से निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है अनास्रव, नए कर्म का निरोध । व्यवदान — निर्जरा, पूर्वकृत कर्म का विनाश।' आत्माभाववक्तव्यता— अहंमानिता । '
ततः ते श्रमणोपासकाः स्थविरैः भगवद्भिः इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकृताः सन्तः हृष्टतुष्टाः स्थविरान् भगवतः वन्दन्ते नमस्यन्ति, प्रश्नान् पृच्छन्ति, अर्थान् उपाददति, उपादाय यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि प्रतिगताः ।
ततः ते स्थविराः अन्यदा कदाचित् तुङ्गिकायाः नगर्याः पुष्पवतिकाच् चैत्यात् प्रतिनिर्गच्छन्ति, बहिः जनपदविहारं विहरन्ति ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः नाम नगरम् आसीत् । स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् प्रतिगता ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगारः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
(ख) ठाणं, ४ । ६२६ । (ग) ओवा.सू.७३ ।
२. भ.वृ.२ । १०१ – 'दाप्' लवने अथवा 'दैप् शोधने' इति वचनाद् । व्यवदानं — पूर्वकृतकर्म्मवनगहनस्य लवनं प्राक्कृतकर्म्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य
ततः भगवान् गौतमः षष्ठक्षपणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानं ध्यायति, तृतीयायां पौरुष्यां अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तः मुखपोतिकां प्रति
१०३. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों से ये इस प्रकार के उत्तर सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो भगवान् स्थविरों को वन्दन - नमस्कार करते हैं, प्रश्न पूछते हैं, अर्थ ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर जिस दिशा से आए, उसी दिशा में लौट जाते हैं।
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१०४. किसी दिन वे स्थविर तुंगिका नगरी के पुष्पवतिक चैत्य से लौट जाते हैं, बाह्य जनपदों में विहार करते हैं।
१०५. उस काल और उस समय राजगृह नामक नगर था। वहां भगवान् महावीर पधारे यावत् परिषद् आई और लौट गई ।
१०६. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले बिना विराम षष्ठभक्त तपःकर्म तथा संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं ।
१०७. भगवान् गौतम षष्ठभक्त के पारणा में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते हैं, तृतीय प्रहर में त्वरता, चपलता और संभ्रम रहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन
तद्व्यवदानफलं तप इति ।
३. वही, २।१०२ - आत्मभाव एव - स्वाभिप्राय एव न वस्तुतत्त्वं वक्तव्योवाच्योऽभिमानाद्येषां ते आत्मभाववक्तव्यास्तेषां भाव आत्मभाववक्तव्यता - अहंमानिता तया ।
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