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________________ भगवई १०१. तए णं ते समणोवासया पेरे भगवंते एवं वयासी जइ णं भंते ! संजमे अणहयफले, तवे वोदाणफले । किंपत्तियं णं भंते! देवा देवलोएसु उववज्जंति ? १०२. तत्थ णं कालियपुत्ते नामं घेरे ते समणोवासए एवं वयासी—पुव्वतवेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्र्ज्जति । तत्य णं मेहिले नामं येरे ते समणोवासए एवं वयासी—पुव्वसंजमेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्जंति । तत्य णं आणंदरक्खिए नामं येरे ते समणोवासए एवं वयासी— कम्मियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववज्रंति । तत्य णं कासवे नामं थेरे ते समणोवासए एवं वयासी—संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति । पुव्वतवेणं, पुव्यसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववअंति । सच्चे णं एस अट्ठे, नो चेव णं आयभाववत्तब्वयाए ॥ २७३ ततः ते श्रमणोपासकाः स्थविरान् भगवतः एवमवादिषु : - यदि भदन्त ! संयमः अनास्त्रवफलः, तपः व्यवदानफलम् । किंप्रत्ययं भदन्त ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते ? तत्र कालिकपुत्रः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् पूर्वतपसा आर्या ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । तत्र मेहिलः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् — पूर्वसंयमेन आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । तत्र आनन्दरक्षितः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् — कर्मितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । तत्र काश्यपः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् — संगितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । पूर्वतपसा, पूर्वसंयमेन, कर्मितया, संगितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । सत्योऽयमर्थः, नो चैव आत्मभाववक्तव्यतया । Jain Education International भाष्य १. सूत्र ६६-१०२ प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् पार्श्व द्वारा सम्मत दो तत्त्वों संवर और निर्जरा की चर्चा हुई है। भगवान् महावीर ने उस दो अंगवाले धर्म का समर्थन किया है। धर्म के दो तत्त्व हैं—संयम और व्यवदान । संयम के द्वारा कर्म का निरोध होता है और व्यवदान के द्वारा कर्म की निर्जरा होती है। ये दोनों स्वर्गोत्पत्ति के कारण नहीं हैं, फिर कोई जीव स्वर्ग में कैसे उत्पन्न होता है ? उसका कोई कारण है या निष्कारण ही पैदा होता है ? इस प्रश्न के समाधान चार स्थविरों ने चार उत्तर दिए हैं- पूर्व तप, पूर्व संयंम, कर्मिता और संगिता । इन चारों में एक संगति है। चारों के समवाय से एक उत्तर १. (क) भ.वृ. २ १०१ कः प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किंप्रत्ययं ? निष्कारणमेव देवा देवलोकेषूत्पद्यन्ते तपः संयमयोरुक्तनीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः । (ख) भ.जो. १ । ४३ । ६३ संयम सूं आवता कर्म रोकै, तप सूं पूर्व कर्म खपाय स्वर्ग तणां कारण नहिं दोनं, तिण सूं निःकारणे स्वर्ग जाय' २. भ. वृ. २ । १०२ - 'पुव्वतवेणं ति पूर्वतपः - सरागावस्थाभावि तपस्या, वीतरागावस्थाऽपेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात् एवं संयमोऽपि श. २: उ.५ः सू.६६-१०२ १०१. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों से इस प्रकार बोले—' भन्ते ! यदि संयम का फल अनास्रव है और तप का फल व्यवदान है, तो देव देवलोक में किस कारण से उपपन्न होते हैं ? १०२. कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! पूर्वकृत तप से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। मेहिल (अथवा मैथिल) नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! पूर्वकृत संयम से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! कर्म की सत्ता से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। काश्यप नामक स्थविर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। आर्यो ! पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं । यह अर्थ सत्य है । अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। बनता है। पूर्व तप का अर्थ है—सराग अवस्था में होने वाला तप और पूर्व संयम का अर्थ है— सराग अवस्था में होनेवाला संयम । इन दो उत्तरों का तात्पर्यार्थ यह है कि वीतराग संयम और वीतराग तप की अवस्था में स्वर्गोत्पत्ति के हेतुभूत आयुष्य का बंध नहीं होता, वह सराग संयम और सराग तप की अवस्था में होता है। छठे, सातवें गुणस्थान में होता है, इसीलिए तप और संयम के साथ 'पूर्व' शब्द को जोड़ा गया है। मुख्यतया स्वर्गोत्पत्ति के दो हेतु हैं— कर्मिता और सङ्गिता । तप से कर्म की निर्जरा होती है और संयम से कर्म का निरोध होता है। इन दोनों से आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता। उसके बंध के दो कारण हैं—कर्म का अस्तित्व और संग (राग) का अस्तित्व ।' जो जीव वर्तमान जन्म में मुक्त: होने For Private & Personal Use Only अयथाख्यातचारित्रमित्यर्थः । ततश्च सरागकृतेन संयमेन तपसा च देवत्वावाप्तिः, रागांशस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् । 'कम्पियाए 'त्ति कर्म विद्यते यस्यासी कर्मी तद्भावस्तत्ता तया कर्मितया । अन्ये त्वाहुः कर्म्मणां विकारः कार्मिका तया ऽ क्षीणेन कर्म्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः । 'संगियाए 'त्ति सो यस्यास्ति स सङ्गी तद्भावस्तत्ता तया, ससङ्गो हि द्रव्यादिषु संयमादियुक्तोऽपि कर्म बघ्नाति, ततः सङ्गितया देवत्वावाप्तिरिति । आह च- पुव्वतवसंजमा होति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागोसंगो वृत्तो संगा कम्पं भवो तेणं ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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