SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श. २: उ.५ः सू.६७-१०० ६. शुद्ध प्रवेश्य वृत्तिकार ने इसके (सुद्धप्यावेस के) दो संस्कृत रूप दिए हैं- शुद्धात्मवैष्य और शुद्धप्रवेश्य। शुद्धात्मवैष्य का अर्थ है-शुद्ध आत्मा के लिए वेषोचित । शुद्धप्रवेश्य का अर्थ है- सभाप्रवेशोचित वेश । ' प्रतिपत्ति, विनयप्रतिपत्ति, विनयविधि का समाचरण – ये गति परक अर्थ हैं। प्रस्तुत प्रकरण में अभिगमन का अर्थ विनय की प्रतिपत्ति है। उसके पांच अंग होते हैं, जिनका सूत्र में उल्लेख है । इनमें पहले दो हैं १. सचित्त द्रव्य का व्युत्सर्ग ६८. तए णं ते पेरा भगवंतो तेसिं समगोवासयाणं तीसे महइमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्मं परिकहेंति, तं वस्त्र आदिका त्याग न करना स्वाभाविक है—उसका अभिगमन के अंग के रूप में उल्लेख किस लिए आवश्यक है ? यह प्रश्न सहज ही उभरता है । ज्ञाता की वृत्ति में अभयदेवसूरि नें एक वैकल्पिक पाठ का उल्लेख किया है। उसका अर्थ है छत्र, चामर आदि का ७. प्रवर यह क्रियाविशेषण विभक्तिरहित पद है । वृत्तिकार ने पउराई व्युत्सर्ग। यह चैकल्पिक पाठ और उसका अर्थ संगत प्रतीत होत — इस पाठान्तर का उल्लेख किया है। ८. अभिगमों अभिगम के ज्ञानपरक और गमनपरक दोनों प्रकार के अर्थ होते हैं। अभिगम—ज्ञान, विस्तृत बोध और बोधिलाभ-ये ज्ञानपरक अर्थ हैं। जहा सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिष्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ॥ ६६. तणं ते समणोवासया वेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता एवं वयासी संजमे णं भंते ! किंफले ? तवे किंफले ? १००. तए णं ते येरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी संजमे णं अजो ! अणहयफले, तवे वोदाणफले ॥ २७२ Jain Education International २. अचित द्रव्य का अव्युत्सर्ग यह 'अव्युत्सर्ग' शब्द चिन्तनीय है । वृत्तिकार ने अविओसरणवाए का अर्थ 'वस्त्र, अंगूठी आदि का अत्याग' किया है। ' ततः ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यै महातिमहत्यै महार्चपरिषदे चातुर्यामं धर्मं परिकथयन्ति तद् यथा सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणम्, सर्वस्मात् मृषावादाद् विरमणम्, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणम्, सर्वस्माद् बहिस्तादादानाद् विरमणम् । १. भ. वृ. २ । ६७ - शुद्धात्मनां वैष्याणि – वेषोचितानि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च — राजादिसभाप्रवेशोचितानि शुद्धप्रवेश्यानि । है। प्रस्तुत प्रकरण में 'अविओसरणयाए' पाठ सही प्रतीत नहीं होता । यहां 'अ' शब्द 'च' के अर्थ में प्रयुक्त है। प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'च' व्यञ्जन का लोप होने पर अकार शेष रहता है। इसका अर्थ है 'अपि' (भी) । इस प्रकार पूरे वाक्य का अर्थ होगा— अचित्त द्रव्यों का भी व्युत्सर्ग। अभिगम के समय जैसे सचित्त पुष्पमालाएं आदि का व्युत्सर्ग किया जाता था, वैसे ही छत्रचामर आदि का भी सर्ग किया जाता था। ६. उत्तरासंग उत्तरीय वस्त्र का विशेष विधि से न्यास करना, जिस प्रकार पूजा के समय उत्तरीय ओढा जाता है। ' ततः ते श्रमणोपासकाः स्थविराणां भगवताम् अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टाः यावत् हर्षवशविसर्पद्हृदयाः त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां कुर्वन्ति कृत्वा एवमवादिषुः —संयमः भदन्त ! किंफलः ? तपः किंफलम् ? २. बही, २६७ वत्थाई पवराई परिहिय'त्ति क्वचिद् दृश्यते 'वत्थाई पवरपरि - हिय'त्ति, तत्र प्रथमपाठो व्यक्तः, द्वितीयस्तु प्रवरं यथा भवत्येवं परिहिताः ततः ते स्थविरा: भगवन्तः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादिषुः – संयमः आर्याः ! अनानवफलः, तपः व्यवदानफलम् । भगवई For Private & Personal Use Only ६८. वे स्थविर भगवान् उन श्रमणोपासकों को उस विशालतम ऐश्वर्यशाली परिषद् में चातुर्याम धर्म का उपदेश करते हैं, जैसे— सर्वप्राणातिपात से विरत होना, सर्व मृषावाद से विरत होना, सर्व अदत्तादान से विरत होना, सर्व बाह्य आदान ( परिग्रह) से विरत होना । ६६. 'वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले हो गए यावत् हर्ष से उनका हृदय विकस्वर हो गया। वे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, प्रदक्षिणा कर इस प्रकार बोले—भन्ते! संयम का फल क्या है ? तपस्या का फल क्या है ? प्रवरपरिहिताः । ३. वही,२।६७ –– वस्त्रमुद्रिकादीनाम् 'अविउसरणयाए 'त्ति अत्यागेन । ४. ज्ञाता.वृ. प. ५०। ५. भ. वृ. २/६७ उत्तरासंगः—उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः । १००. वे भगवान् स्थविर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोले—आर्यो ! संयम का फल है अनास्त्रव और तप का फल है व्यवदान — निर्जरा । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy