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________________ भगवई २७१ श.२: उ.५: सू.६७ थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पजुवासणाए पजुवासंति ॥ गम्य त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा त्रिवि- धया पर्युपासनया पर्युपासते । ही बद्धाजलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां स्थविर भगवान हैं वहां आते हैं। आकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करते हैं। भाष्य १.हित....आनुगामिकता हित आदि पदों के लिए द्रष्टव्य है-भ.२।३० का भाष्य । २. बलिकर्म यह स्नान के अनन्तर की जानेवाली क्रिया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ अपने गृह-देवता की पूजा किया है।' निशीषभाष्य-चूर्णि में चावल आदि से अल्पना करने को बलिकर्म कहा गया है।' अंगुत्तरनिकाय में बलि के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं १. ज्ञातिबलि २. अतिथिबलि ३. पूर्वप्रेतबलि ४. राजबलि ५. देवता-बलि। मनुस्मृति में भी बलिप्रकरण में महर्षि, पितर, देव, भूत और अतिथि–इन पांच प्रकारों का निर्देश मिलता है।' बलि का अर्थ पूजा है, किन्तु स्नान के पश्चात् बलिकर्म का अर्थ घटित नहीं होता। पुष्करिणी में स्नान किया, वहां भी बलिकर्म करने का उल्लेख है। वहां कुलदेवता की पूजा कैसे हो सकती है? यहां 'बलि' का अर्थ 'जलाञ्जलि' देना हो सकता है। इसका दूसरा अर्थ-'ललाट पर रेखा खींचना' भी किया जा सकता है। जयाचार्य ने 'बलिकर्म' शब्द की विस्तृत मीमांसा की है।" ३. कौतुक 'कौतुक' शब्द कुतूहल, उत्सव, अपचय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ काजल का तिलक किया है। दृष्टिदोष आदि से बचने के लिए काजल का तिलक करने की प्रथा थी। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'ललाट से मुशल का स्पर्श करवाना किया है। द्रष्टव्य, उत्तरज्झयणाणि, २२ | ६ का टिप्पण। कौतुक के अर्थ में कोउहल शब्द का भी प्रयोग मिलता है। उसका अर्थ है पुत्र-प्राप्ति के लिए स्नान आदि करना।' सौभाग्य आदि के निमित स्नान करना या करवाना कौतुक कहलाता है।" र सरसों, दही, अक्षत, दूर्वा, अंकुर आदि का प्रयोग करने को मंगल कहा जाता है। ५. प्रायश्चित्त कौतुक और मंगल ये चक्षुदोष आदि के निवारण के लिए किये जाते हैं। इसलिए कौतुफ और मंगल का प्रयोग प्रायश्चित्त कहलाता है। वृत्तिकार ने एक मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार पादछुप्त पाठ व्याख्यात होता है। तात्पर्यार्थ में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। है। इसलिए कौतुर्मान्तर का उल्लेख का कोई मौलिक १. भ.व.२।६७-'कयबलिकम्म'त्ति स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा। २. निशीथ भा.गा.२०४ की चू.-बलिकरणंकूरा तिणा बलिकडा। ३. अंगुत्तरनिकाय,पञ्चक निपातो, मुण्डराजवग्गो, आदियसुत्तं, ५।५।१, पृ.३११ ---पुन च परं,गहपति, आरियसावको उट्ठानविरियाधिगतेहि भोगेहि बाहाबलपरिचितेहि....पञ्चबलिं कत्ता होति। आतिबलिं, अतिथिबलिं, पुब्बपेतबलिं, राजबलिं, देवताबलिं–अयं चतुर्थो भोगानं आदियो । ४. मनुस्मृति,३/० ऋषयः पितरो देवा, भूतान्यतिथयस्तथा । आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्य विजानता ।। ५. नाया.१।२।१४। ६. आप्टे,—बलिक्रिया line on the forehead. ७. भ.जो.११४३११-४६। ८. भ..२।६७ कौतुकानि–पषीतिलकादीनि । ६. उत्तरा.वृ.वृ.प.४६० कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि । १०. (क) उत्तर.२०।४५ जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्तकोऊहल संपगाढे। (ख) उत्तरा.बृ.वृ.प.४७६ –कौतुकं च अपत्याद्यर्थं स्वपनादि । ११. स्था.वृ.प.२६१-रक्षादिकरणेन कौतुककरणेन-सौभाग्यादिनिमित्तं परस्त्र पनकादिकरणेनेति । १२. भ.वृ.२।६७–मंगलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्षतदूर्वाकुरादीनि । १३. वही,२।७-'कयकोउयमंगलपायच्छित्त'त्ति कृतानि कौतुकमंगलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्यैस्ते तथा । अन्ये त्याहुः -'पायच्छित्त'त्ति पादेन पादे वा छुप्ताश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुप्ताः कृत-- कौतुकमगंलाश्च ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रहः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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