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श. १: उ.१: सू. ६
कहलाता है। चौदह पूर्वों का श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है । किन्तु श्रुतज्ञानी का चतुर्दशपूर्वी होना अनिवार्य नहीं है। चतुर्दशपूर्वी होने का अर्थ है - प्रकृष्ट श्रुतज्ञानी होना । श्रुतकेवली की तुलना केवली से की गई है । केवली सब द्रव्यों और सब पर्यायों को साक्षात् जानता है और श्रुतकेवली उन्हें श्रुत के आधार पर जानता है।
इन्द्रभूति गौतम गणधर थे। गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं, यह सर्वसम्मत तथ्य है । उत्तरज्झयणाणि में इन्द्रभूति गौतम को बारह अंगों का ज्ञाता कहा गया है।
अध्ययन के विषय में तीन परम्पराएं मिलती हैं ---- १. ग्यारह अंगों का अध्येता । '
२. बारह अंगों का अध्येता। ३. चौदह पूर्वो का अध्येता ।'
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार दृष्टिवाद में समस्त शब्दज्ञान का अवतार हो जाता है, फिर भी ग्यारह अंगों की रचना अल्पमेधा पुरुषों और स्त्रियों के लिए की गई ।'
यद्यपि बारह अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले—ये भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चौदह पूर्वो के अध्येता बारह अंगों के अध्येता नहीं थे और बारह अंगों के अध्येता चतुर्दशपूर्वी नहीं थे । गौतम स्वामी को 'द्वादशांगवित्' कहा गया है। वे चतुर्दशपूर्वी और अंगधर दोनों थे, यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुतकेवली को कहीं 'द्वादशांगवित्' और कहीं 'चतुर्दशपूर्वी' कहा गया है।
ग्यारह अङ्ग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं। इसलिए जो चतुदेशपूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से ही द्वादशांगवित् होता है। बारहवें अङ्ग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। इसलिए जो द्वादशांगवित् होता है, वह स्वभावतः ही चतुर्दशपूर्वी होता है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं9. चौदह पूर्व और २. ग्यारह अङ्ग । द्वादशांगी का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यह पूर्वी और अङ्गों का संयुक्त नाम है।
वृत्तिकार ने बतलाया है कि इन्द्रभूति गौतम चतुर्दश पूर्वी के रचयिता थे, इसलिए उन्हें 'चतुर्दशपूर्वी' कहा गया है।"
१. नंदी, १२७ -- तत्थ दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्वदव्वाई जाणइ पासइ । ......भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्वे भावे जाणइ पासइ | २. आव.नि.गा. ६२
अत्यं भासइ अरहा, सुतं गंथन्ति गणहरा निउणं ।
सासणस हिट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तए ॥
३,५. उत्तर.२३ । ७ –– बारसंगविऊ बुद्धे ।
४. अंत. ६ । १५/६६ सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ ।
६. वही, ३ ६ १११६ – चोद्दस पुव्वाई अहिज्जइ ।
७. वि.भा.गा. ५५४
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वि य भूतावाए वओगयरस ओयारो । निज्हणा तहावि हु, दुम्मे पप्प इत्थी य ॥
८. भ.वृ.१।६--- चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुर्दश
पूर्वी ।
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भगवई
१०. सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि से युक्त
विशेषावश्यकभाष्य में ऋद्धि के अनेक प्रकार बतलाए गये हैं । उनमें 'सर्वाक्षरसन्निपात' की परिगणना नहीं है। तत्त्वार्यराजवार्तिक में बुद्धि ऋद्धि के अठारह प्रकार बतलाए गये हैं । उसमें भी इसका उल्लेख नहीं है।
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वृत्तिकार ने 'सव्वक्खरसन्निवाती' के दो अर्थ किये हैं-- १. सब अक्षरों के संयोग के ज्ञाता, २. श्रव्य अक्षरों के वक्ता । "
औपपातिक वृत्ति में 'सव्वक्खरसन्निवाइयाए पाठ तथा वैकल्पिक रूप से 'सव्वत्तक्खरसन्निवाइयाए' पाठ व्याख्यात हैं। ये दोनों वाणी के विशेषण हैं। श्रमण भगवान् महावीर ने सर्वाक्षरसन्निपाती की वाणी के द्वारा धर्म-प्रवचन किया।
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इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रस्तुत पद का संबंध वाणी से है । 'चोद्दसपुब्बी' और 'चउनाणोवगए' इन दो पदों के द्वारा गौतम के ज्ञानातिशय और 'सव्वक्खरसन्निपाती' इस पद के द्वारा उनके वचनातिशय का निर्देश किया गया है।
११. न अति दूर और न अति निकट ऊर्ध्वजानु अघः सिर (उकडू आसन की मुद्रा में)
इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के पार्श्ववर्ती स्थल में ठहरे हुए थे, वह स्थल बहुत निकट भी नहीं था और बहुत दूर भी नहीं
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था।
ऊर्ध्वजानु अधः शिरा के दो अर्थ किए जा सकते हैं- उकडू आसन और सर्वांगासन | मुनि के लिए शुद्ध पृथ्वी ( आसन-रहित भूमि) पर बैठना वर्जित था। उसका एक कारण अहिंसा की दृष्टि और दूसरा कारण मानसिक एकाग्रता की सिद्धि के लिए पृथ्वी के आकर्षण से बचाव करना था। मुनि के लिए दो प्रकार के उपकरणों का विधान है— औधिक और औपग्रहिक । अनिवार्य उपकरण औधिक कहलाते हैं और ऋतुविशेष में रखे जाने वाले औपग्रहिक । गौतम के पास औपग्रहिक निषद्या नहीं थी, इसलिए वे उकडू आसन में बैठते थे। घेरण्डसंहिता में उत्कटासन का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है दोनों पैरों के अंगुठों को भूमि पर टिका, दोनों एडियों को
६. वि.भा.गा. ७७५-७६ ।
१०. त. रा. वा. ३ । ३६ ।
११. भ. वृ. ११६- सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती, श्रव्याणि वा श्रवणसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलमस्येति श्रव्याक्षरसंनिवादी |
१२. औप.वृ. पृ.१४७ सव्व (सव्वत्त) क्खरसन्निवाइयाए सुव्यक्तः अक्षरसन्निपातोवर्णसंयोगो यस्यां सा तथा तया..... सव्वक्खरसन्निवाइयाए सर्वाक्षराणां सन्निपातः - अवतारो यस्यामस्ति सर्वे वाक्षरसन्निपाताः संयोगाः सन्ति यस्यां सा सर्वाक्षरसन्निपातिका तया ।
१३. भ. वृ. ११६-तत्र दूरं च विप्रकृष्टं सामन्तं च संनिकृष्टं तनिषेधाददूरसामन्तं तत्र, नातिदूरे नातिनिकट इत्यर्थः ।
१४. दसवे. ८।५ सुद्धपुढवीए न निसिए ।
देखें, दसवे. ८ । ५ का टिप्पण ।
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