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________________ भगवई १६ श.१: उ.१: सू.६,१० निरालम्ब कर ऊपर को उठा दो। गुह्यस्थान को एडियों पर रखो, यह उत्कटासन है।' हठयोगप्रदीपिका में ऊर्च नाभेरघस्तालुः (३१७६) और अधःशिराश्चोर्ध्वपादः (३।८१)—ऐसे प्रयोग मिलते हैं। सर्वांगासन और शीर्षासन में भी यह मुद्रा बनती है। इसका बहुत संभव अर्थ उकडू। आसन ही है। ठाणं में पांच प्रशस्त स्थान बतलाए गए हैं। उनमें । एक उकडू आसन है।' वहां निषद्या के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें । पहली निषद्या उत्कटिका है। निषद्या ध्यान का आसन है। भगवान महावीर स्वयं उकडू-गोदोहिका आदि निषद्याओं में ध्यान किया करते थे। भगवान की ध्यान-मुद्रा के लिए भी 'ऊर्ध्वजानु अधःसिर' की मुद्रा का प्रयोग किया गया है।' १२. ध्यानकोष्ठक में लीन होकर ___ 'ध्यानकोष्ठ' पद एकाग्रता का सूचक है। कोठे में डाला हुआ अनाज इधर-उधर नहीं बिखरता, वैसे ही एकाग्रता की साधना के द्वारा इन्द्रियां, मन और वृत्तियां इधर-उधर नहीं दौड़ती, किन्तु एक ध्येय पर ही स्थिर हो जाती हैं। कोष्ठ का तात्पर्य है ध्येय। जब ध्यान अपने ध्येय में लीन हो जाता है, उस अवस्था में चित्त की 'ध्यान-कोष्ट' अवस्था का निर्माण होता है। पतञ्जलि ने इसे 'देशबन्ध' या 'प्रत्ययैकतानता' कहा है। 'कोष्ठ' का एक अर्थ आन्तरिक अंग या अवयव है। इस आधार पर ध्यानकोष्ठ का अर्थ-ध्यान के लिए उपयुक्त शरीरवर्ती चैतन्य केन्द्र नाभि, कण्ठ, हृदय, फुप्फुस, जीभ आदि किया जा सकता है। यह अर्थ अधिक प्रासंगिक है। व्यास-भाष्य में 'देश-बन्ध' के लिए बाह्यदेश का गौण रूप में और शरीर के अंगों का मुख्य रूप में निर्देश मिलता है। १३. संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए वृत्तिकार ने संयम का अर्थ संवर किया है। ठाणं में संयम और संवर का पृथक निर्देश है। संयम का अर्थ नियमन अथवा उपरति है।” संवर का अर्थ निरोध है।" इन्द्रभूति गौतम के मन, वचन और शरीर का संयम स्वतः सिद्ध था, इनसे उनकी आत्मा सहज भावित थी। जिससे कर्म की निर्जरा होती है, वह तप है। उसके बारह प्रकार हैं। १०. तए णं से भगवं गोयमे जायसडे जाय- ततः स भगवान् गौतमः जातश्रद्धः जात- १०. उस समय भगवान गौतम के मन में एक श्रद्धा संसए जायकोउहल्ले उपपत्रसट्टे उप्पनसंसए संशयः जातकुतूहलः उत्पन्नश्रद्धः उत्पन्न- (इच्छा), एक संशय (जिज्ञासा) और एक कुतूहल उप्पत्रकोउहल्ले संजायसढे संजायसंसए संशयः उत्पत्रकुतूहलः संजातश्रद्धः संजात- जन्मा; एक श्रद्धा, एक संशय और एक कुतूहल संजायकोउहल्ले समुप्पनसड्ढे समुप्पत्रसंसए संशयः संजातकुतूहलः समुत्पन्नश्रद्धः समुत्पन्न- उत्पन्न हुआ; एक श्रद्धा, एक संशय और एक समुप्पन्नकोउहल्ले उडाए उद्देति, उद्वेत्ता संशयः समुत्पन्नकुतूहल: उत्थया उत्तिष्ठति, कुतूहल बढ़ा तथा एक श्रद्धा, एक संशय और जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा- उत्थाय यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव ___एक कुतूहल प्रबलतम बना। वे उठने की मुद्रा गच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं में उठते हैं, उठकर जहां श्रमण भगवान् महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वंदते हैं, वहां आते हैं, वहां आकर श्रमण भगवान् १. घेरण्डसंहिता, द्वितीयोपदेश २३ ७. पा.यो.द.व्यास-भाष्य,३।१–नाभिचक्रे ह्रदयपुण्डरीके मूर्ध्नि ज्योतिषि नासिअंगुष्ठाभ्यामवष्टभ्य धरां गुल्फे च खे गतौ । काग्रे जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु, बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति तत्रोपरि गुदं न्यस्य, विज्ञेयमुत्कटासनम् ।। धारणा। २. ठाणं, ५१४२–पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिगंथाणं, ८.भ.वृ.१16--'संजमेणं'ति संवरेणं । णिचं वण्णिताई, णिचं कित्तिताई, णिच्चं बुइयाई, णिच्चं पसत्थाई, णिच्चं अटभ- ६.(क) ठाणं, २।४५-४६-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संजमेण गुण्णाताई भवंति, तं जहा-ठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, संजमेजा, तं जहा–आरंभे चेव, परिगहे चेव । वीरासणिए, णेसज्जिए। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संवरेणं संवरेजा, तं जहा३. वही, ५।५०-पंच णिसिजाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—उक्कु डुया, आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। गोदोहिया, सभपायपुता, पलियंका, अद्धपलियंका । (ख) वही, ३।१६६, १६७ तिहिं जामेहिं आया केवलेणं संजमेणं संजमेजा, ४. आ.चूला,१५।३८ सालरुक्खस्स अदूरसामंते, उक्कुडुयस्स, गोदोहियाए तं जहा—पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। तिहिं जामेहिं आया आयावणाएं आयावेमाणस्स, छठेणं भत्तेणं अपाणएणं, उड्ढंजाणुअहोसिरस्स, केवलेणं संवरेणं संवरेजा, तं जहा.......। धम्मज्झाणोवगयस्स, झाणकोट्टोवगयस्स, सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स, १०. जीतकल्प भाष्य,गा.११०७निव्वाणे, कसिणे, पडिपुण्णे, अव्याहए, णिरावरणे, अणते, अणुत्तरे, केवल- सं एगीभावम्मि, जमउवरम एगीभावउवरमणं । वरणाणदंसणे समुप्पण्णे। सम्म जमो वा संजमो, मणवइकायाण जमणं तु ।। ५. पा.यो.द.३ १,२–देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। ११. स्था.वृ.प.१७-संव्रियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । स संवरः। ६. आप्टे.-कोष्ठ-Any one of the viscera of the body such १२. देखें,भ.२५ । ५५७६१६ | as the heart, lungs etc. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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