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श.१: उ.१: सू.१०
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भगवई
वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णचासन्ने नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा न अत्यासन्नः णातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः विणएणं पंजलियडे पञ्जुवासमाणे एवं विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपासीनः एव- वयासी
मवादीत्
महावीर को दाई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट, न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
भाष्य
१. गौतम के मन में एक श्रद्धा, एक संशय और एक कुतूहल जन्मा......प्रबलतम बना
श्रद्धा का अर्थ है इच्छा, रुचि अथवा उत्सुकता।' पातञ्जल यह क्रम संगत लगता है। अतः इन चारों शब्दों को क्रमिक विकास योग-भाष्य में इसका अर्थ चित्त का संप्रसाद किया है। इसका अर्थ का द्योतक मानना अधिक संगत प्रतीत होता है।" विश्वास भी होता है, पर यहां वह प्रासंगिक नहीं है। संशय का
२. दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा अर्थ है जिज्ञासा और कुतूहल का अर्थ है आश्चर्य। यह दर्शन के उद्भव की त्रिपदी है। किसी भी अज्ञात वस्तु के विषय में एक
आदक्षिण-प्रदक्षिणा कृतिकर्म का एक प्रकार है। वृत्तिकार ने इच्छा पैदा होती है, फिर उसे 'जानने की इच्छा' पैदा होती है।
इसका अर्थ किया है—दक्षिण हस्त से प्रारंभ कर चारों ओर प्रदक्षिणा तीसरी अवस्था में एक आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया
करना। से दर्शन का विकास हुआ है। प्लेटो और अरस्तु ने भी आश्चर्य प्राचीन काल में अपने इष्ट देव या गुरु के चारों ओर घूमकर की अवस्था में ज्ञान का अभ्युदय माना है। प्रस्तुत आगम में इस प्रदक्षिणा की जाती थी। उसका प्रारंभ गुरु के दाएं हाथ की ओर से त्रिपदी का अनेक बार प्रयोग हुआ है।
होता और प्रदक्षिणा करने वाले के शरीर का दायां भाग निरन्तर गुरु जात, उत्पन्न, सज्जात और समुत्पन्न-ये चारों शब्द क्रमिक की ओर रहता। वृत्तिकार ने भी 'प्रदक्षिण' पद की व्याख्या के द्वारा विकास के सूचक प्रतीत होते हैं। जैसे बीज बोया जाता है, अंकुरित
इसी बात की ओर संकेत किया है। इस प्रकार आदक्षिण और होता है, पौधा वृद्धिंगत होता है और अन्त में पूर्ण रूप से निष्पन्न ।
प्रदक्षिण दोनों पद परिक्रमा की विधि के सूचक बन जाते हैं। प्रदक्षिण हो जाता है, वैसे जात अर्थात् अस्तित्व में आना (जन्मा), उत्पन्न
का अर्थ नमस्कार या सम्मान-पूर्ण व्यवहार भी है।” षट्खण्डागम में अर्थात् पैदा होना (उत्पन्न हुआ), सजात अर्थात् वृद्धिंगत होना।
'आदाहीणं पदाहीणं' पाठ मिलता है। 'आदाहीणं' का अर्थ आत्माधीनम् (बढ़ा), समुत्पन्न अर्थात् पूर्ण रूप से निष्पन्न होना (प्रबलतम बना)।
किया गया है।" इस प्रसंग में इस अर्थ की संगति विमर्शनीय है।
दिगम्बर सम्प्रदाय तथा दक्षिण भारत में प्रदक्षिणा की परम्परा आज वृत्तिकार के अनुसार 'जात' का अर्थ है-प्रवृत्त' और 'उत्पन्न'
भी प्रचलित है। वर्तमान में श्वेताम्बर जैन परम्परा में इसका प्रचलन का अर्थ है—जो पहले नहीं था उसका होना।
नहीं है। अभी वंदना के समय हाथों को बद्धांजलि कर दायीं ओर इस प्रकार यद्यपि 'उत्पन्न' पद को हेतु रूप मानकर अर्थ ।
से प्रारंभ कर तीन बार घुमाने की परम्परा प्रचलित है। यह आवर्त घटित करने का प्रयल किया गया है, फिर भी क्रम की दृष्टि से है, प्रदक्षिणा नहीं है, कृतिकर्म में बारह आवर्त किये जाते हैं।"
१. भ.वृ.१1१०-श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थं तत्वज्ञानं प्रति। २. पा.यो.द.व्यास-भाष्य, १।२०- श्रद्धा चेतसः संप्रसादः । ३. आप्टे.-जात-brought into existence; उत्पन्न----emerged
(उत्+पत्= to emerge into view); सञ्जात-grown; समुत्पन्न(सम्+उत्+पत्=) spring up, rise. ४. भ.वृ.१।१०-जाता प्रवृत्ता। ५. वही,१1१०-उत्पन्ना-प्रागभूता सती भूता । ६. (क) भ.वृ.१।१०।
(ख) भ.जो.प्रथम खण्ड,पृ. ४३ पादटिप्पण। ७. तुलना करें दसवे.७।३५॥ ८. भ.वृ.१।१०–आदक्षिणाद्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणाः---परितो भ्राम्य
तो दक्षिण एव आदक्षिण-प्रदक्षिणः ।
६. आप्टे.--प्रदक्षिणः, प्रदक्षिणा, प्रदक्षिणम्- Circumambulation from
left to right so that the right side is always turned towards the person or object circumambulated, a reverential
salutation made by walking in this manner. १०. वही--प्रदक्षिण-respecitul, reverential. ११.प.ख.पु.१३,खं.५,भा.४,सू.२८,पृ.८६-तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं...। १२. (क) सम. १२।३–दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते [तं जहा---
दुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं ।
चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥१॥] (ख) ष.खं.धवला,पु.१३,खं.५,भा.४,सू.२८,पृ.८८-तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम |
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