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भगवई
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भाष्य
१. सूत्र ३३५-३३८
एक जीव मृत्यु-काल में स्थूल शरीर ( औदारिक अथवा वैक्रिय) को छोड़कर दूसरे जन्म-स्थान में जाता है। एक स्थान से दूसरे जन्मस्थान में जाते समय जो गति होती है, उसे विग्रहगति कहा जाता है ।' गति के साथ 'विग्रह' शब्द का प्रयोग अनेक सन्दर्भों में हुआ है। जहां एकसामयिक अन्तरालगति के अर्थ में विग्रहगति का प्रयोग है, वहां उसका अर्थ 'विशिष्टस्थान प्राप्ति की हेतुभूत गति' होता है । ' तत्त्वार्थराजवार्तिक में अन्तरालगति के सन्दर्भ में विग्रह के दो अर्थ किए गए हैं—शरीर और व्याघात । फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि विग्रहगति का अर्थ है- शरीर निर्माण के लिए होने वाली गति अथवा वह गति जिसमें नोकर्म- पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता।
प्रस्तुत आगम में विग्रहगति के चार प्रकार बतलाए गए हैं — एकसामयिक विग्रह, द्विसामयिक विग्रह, त्रिसामयिक विग्रह, चतुःसामयिक विग्रह ।'
दो, तीन और चार समय वाली गति के साथ प्रयुक्त 'विग्रह' का अर्थ चक्र होता है।
प्रस्तुत आलापक में वृत्तिकार ने 'विग्रह' का अर्थ वक्र किया है।' यह विमर्शनीय है। यहां उसका अर्थ 'विशिष्ट स्थान - प्राप्ति की हेतुभूत गति' होना चाहिए ।
ठाणं में विग्रहगति-समापन्न जीव के दो शरीर बतलाए गए हैं - तेजस और कार्मण । वहां वृत्तिकार ने विग्रहगति का अर्थ किया है। किन्तु यह भी विमर्शनीय है। तैजस और कार्मण शरीर ऋजु और वक्र दोनों गतियों में समान रूप से होते हैं; इसलिए 'विग्रहगति' का अर्थ केवल अन्तरालगति है। प्रस्तुत प्रकरण में भी यही घटित होता है। चौदहवें शतक (सू. ५५ ) से इसकी पुष्टि होती है --विग्रहगति - समापत्र नैरयिक अग्रिकाय के मध्य चला जाता है, वह दग्ध नहीं होता। यहां 'विग्रह' शब्द के द्वारा ऋजु और वक्र दोनों गतियां विवक्षित हैं ।
१. (क) भ. ३४ । २ ।
(ख) ठाणं, २।१६१ । २. भ. वृ. प. ६५६ – विग्रहे वक्रगतौ च तस्य संभवात् गतिरेव विग्रहः । विशिष्टो वाग्रहो विशिष्टस्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहः ।
३. त. रा. वा. २ । २५ विग्रहो देहस्तदर्था गतिर्विग्रहगतिः..... विरुध्दो ग्रहो विग्रहो व्याघात इति वा । .... व्याघातः नोकर्मपुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । विग्रहेण गतिः विग्रहगतिः । आदाननिरोधेन गतिरित्यर्थः ।
४. भ. ३४ । २,३,१४,१४ | ३ |
५. भ. वृ. १ । ३३५ विग्रहो वक्रं तप्रधानागतिर्विग्रहगतिः, तत्र यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते ।
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६. ठाणं, २।१६१ ।
७. (क) स्था.वृ. प. ५२ – विग्रहगतिः वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्तां समापन्ना विग्रहगतिसमापन्नास्तेषां द्वे
श. १: उ.७: सू. ३३५-३३८
'अविग्रह' शब्द का प्रयोग भी दो अर्थों में हुआ है१. ऋजुगति २. उत्पत्ति स्थान की प्राप्ति । अभयदेवसूरि ने चौदहवें शतक की वृत्ति में 'अविग्रहगति समापन्न' का अर्थ ' उत्पत्ति क्षेत्रोपपन्न' किया है तथा 'ऋजुगति समापन्न' अर्थ को वहां अप्रासंगिक बतलाया है। " प्रस्तुत प्रकरण में भी 'अविग्रहगति समापन्न' का अर्थ 'उत्पत्तिस्थान को प्राप्त' होना चाहिए। प्राचीन टीकाकार ने 'अविग्रहगति - समापन्न' का अर्थ 'ऋजुगतिक' किया है। अभयदेवसूरि ने उसमें अपनी असहमति प्रकट की है। उनका तर्क है कि यदि 'अविग्रहगति -समापन्न' का अर्थ 'ऋजुगतिक' किया जाए, तो अविग्रहगति वालों का बहुत्व घटित नहीं होगा । जयाचार्य ने भी नैरयिक के प्रथम भंग की व्याख्या में अविग्रहगति समापन का अर्थ 'उत्पत्ति - स्थान में स्थित ' किया है ।" अविग्रहगति और विग्रहगति के सन्दर्भ में उनके तीन भंग बनते हैं
१. सब नैरयिक अविग्रहगति -समापन्न ।
२. अविग्रहगति समापन बहुत नैरयिक और विग्रहगति - समापन्न एक नैरयिक।
३. अविग्रहगति -समापन्न बहुत नैरयिक और विग्रहगति -समापन्न बहुत नैरयिक।
प्रथम भंग में उत्पत्ति स्थान प्राप्त नैरयिक विवक्षित हैं। जिस समय नरक में उत्पत्ति का विरह-काल होता है, उस समय यह भंग घटित होता है।
दूसरे भंग की विवक्षा है कि बहुत नैरयिक उत्पत्ति-स्थान को प्राप्त होते हैं और एक नैरयिक अन्तरालगति में होता है।
तीसरे भंग की विवक्षा है कि बहुत नैरयिक उत्पत्ति-स्थान को प्राप्त होते हैं और बहुत नैरयिक अन्तरालगति में होते हैं ।
समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय में बहुत जीव उत्पन्न हैं और बहुत जीव उत्पन्न हो रहे हैं; इसलिए तीसरा भंग ही बनता है ।
शरीरे, इह तैजसकार्मणयोर्भेदेन विवक्षेति ।
(ख) ष. खं. धवला, पु. ४,खं. १, भा. ३, सू.२, पृ. २६ - विग्गही वक्को कुटिलो ति
एगट्ठा ।
८. भ. वृ. प. ६४२ - अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः, तस्येह प्रकरणेऽनधिकृतत्वात् ।
६. वही, १ । ३३५ यदि चाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एवोच्यते तदा नारकादिपदेषु सर्वदैवाविग्रहगतिकानां यद्बहुत्वं वक्ष्यति तन्न स्याद्, एकादीनामपि तेषूत्पादश्रवणात् । टीकाकारेण तु केनाप्यभिप्रायेणाविग्रहगतिसमापत्र ऋजुगतिक एव व्याख्यात इति ।
१०. भ.जो. १ | २० | ३४
सगलाइ जीव हुवै कदा, अविग्रह - गति समापन | उत्पत्ति विरहे विषै हुवै, नरकै रह्या बहु वचन ॥
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