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श.२. उ.३. सू.७५,७६
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भगवई के जीवों के संतुलन-हेतु अव्यवहार राशि के जीव उत्क्रमण करते हैं वनस्पति को अव्यवहार राशि कहा जाता है। निगोद के दो प्रकार और इस संतुलन को बनाने में यह एक प्रक्रिया है जिसे इस प्रकार होते है सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद। दरसाया जा सकता है-निगोद जीव-संसारी जीव-मोक्ष के जीव
जो जीव एक बार अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आ जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही जीव अव्यवहार राशि जाता है, उसकी राशि में परिवर्तन नहीं होता वह सूक्ष्म निगोद में से व्यवहार राशि में आ जाते हैं।'
जाने पर भी व्यवहार राशि में ही रहता है। व्यवहार का अर्थ हैइससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जीव कहीं बाहर से नहीं भेद। अव्यवहार राशि के जीवों में इन्द्रियकृत कोई भेद नहीं है। आते, न अन्तरिक्ष से आते और न घटते या बढ़ते हैं। वे एक
यह आत्मा का प्राकृतिक रूप है, इसीलिए आत्मा और पुद्गल का जाति से दूसरी जाति में, एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में बदलते रहते
सम्बन्ध कब हुआ—जैन दर्शन के सामने यह प्रश्न ही नहीं है। इस अव्यवहार राशि में से निकलकर जीव व्यवहार राशि में आते हैं।
वहां उनके एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जैन दर्शन की यह धारणा है कि जीवों की संख्या अनन्त
ये--भेद बनते हैं। जो जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में है, वे अनादि हैं। जो नया उद्गम दिखाई देता है, वास्तव में वह
आकर अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह प्रत्येक नया उद्गम नहीं है, अपितु जीव एक जाति से दूसरी जाति में अपने
योनि में अनन्त बार पैदा हो चुका है। जो जीव अव्यवहार राशि शरीर के आवरण में बदलता है।
से निकलकर शीघ्र मुक्त हो जाता है, उसके लिए असकृत् (अनेक निगोद के जीव एक Reserve Fund (स्थाई कोश या अक्षय बार) का नियम है। वह एकाधिक बार जन्म लेकर मुक्त हो जाता कोश) की तरह हैं। ये ही लोक में जैविक सन्तुलन बनाये रखते है। अनन्त बार और अनेक बार के उल्लेख होने के विशेष कारण हैं। ये सूक्ष्म निगोद से बादर निगोद अथवा प्रत्येक शरीर में आ हैं। ऐसे जीव भी हैं जो अव्यवहार राशि से निकल कर केवल जाते हैं। इस उवर्तन के और भी कारण उपलब्ध हैं। इस उदवर्तन
एकाधिक भव करते हुए मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, जैसे मरुदेवी माता के सहयोगी कारण ये हैं:
के संबंध में उल्लेख है कि उन्होंने सूक्ष्म निगोद से निकल कर दूसरे १. चेतना के परिणामों की भिन्नता ।
जन्म में ही मोक्ष पा लिया। २. लेश्याओं का परिवर्तन होना।
___ अनन्त बार और अनेक बार इन दोनों नियमों के उदाहरण ३. काल-लब्धि।
बारहवें शतक में विस्तार से वर्णित हैं।' पारिभाषिक शब्दावली में अनादिनिगोद, नित्यनिगोद या अनादि
१. अभिधान राजेन्द्रकोष, भा.६,पृ.६३
सिज्झन्ति जत्तिया किर, इह संववहारजीवरासीयो ।
जंति अणाइवणस्सइ-रासीओ तत्तिमा तम्मित्ति ।। निगोदाश्च द्विधाधसूक्ष्मा बादराश्च, यावन्तः सिध्यन्ति तावन्तः सूक्ष्मनिगोदेभ्यो व्यवहारराशी समायान्ति। २. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा.१६६ ३. जीवा.५।५३–णिओदजीवा णं भंते कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमणिओदजीवा, बादरणिओदजीवा य;
जीवा.बृ.प.४२३-भगवानाह-गौतम ! द्विविधा निगोदाः प्रज्ञप्तास्तद् यथा
निगोदाश्च निगोदजीवाश्च । उभयेषामपि निगोदशब्दवाच्यतया प्रसिद्धत्वात् तत्र निगोदा जीवाश्रयविशेषाः, निगोदजीवा भिन्नतैजसकार्मणा जीवा एव । अधुना निगोदभेदान् पृच्छति 'निगोयाणं मंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद् यथा सूक्ष्मनिगोदाश्च बादरनिगोदाश्च, तत्र सूक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकापना वादरनिगोदाः मूलकंदादयः। ४. भ.१२।१३३-१५२ ।
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