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मूल
तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद पुढवि-पदं पृथिवी-पदम्
पृथ्वी-पद ७५. कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञाप्ताः ? ७५. भन्ते ! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! सत्त पुटवीओ पण्णत्ताओ, तं गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-- गौतम ! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रत्नप्रभा, जहा-१. रयणप्पभा २. सक्करप्पमा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, ३.बालुयप्पभा ४. पंकप्पमा ५. धूमप्पमा धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमाः। जीवाभिगमे तमःप्रभा और तमस्तमा । जीवाभिगम में नैरयिकों ६. तमप्पमा ७. तमतमा। जीवाभिगमे नैरयिकाणां यः द्वितीयः उद्देशः स नेतव्यः का जो दूसरा उद्देशक है, वह ज्ञातव्य है यावत्नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयब्बो यावत्जाक
७६. किं सब्वे पाणा उववण्णपुवा ?
किं सर्वे प्राणाः उपपन्नपूर्वाः ?
७६. क्या सब प्राणी (वहां) पहले भी उपपन्न हुए
हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो॥ हन्त गौतम ! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः।
हां, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार।'
भाष्य
१. अनेक वार अथवा अनन्त वार
जीव तत्त्व के लिए जैन दर्शन की यह विशिष्ट धारणा रही इन तथ्यों से सिद्ध की है कि वे एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक है कि समस्त जीव दो प्रकार के हैं—पहले स्थूल शरीर धारण किए। साथ ही मरते हैं, एक साथ हो श्वास-उच्छ्वास व आहार लेते हैं।' हुए हैं, दूसरे सूक्ष्म शरीर वाले हैं। सूक्ष्म शरीर की धारणा पूर्णरूप ऐसा व्यवहार अन्य किसी भी जीव का नहीं है। यह अभिन्नता से वैज्ञानिक और लोक के सन्तुलन की व्यवस्था में उपयोगी है। औदारिक शरीर की अपेक्षा से बतलाई गई है। आत्म-स्वातन्त्र्य की पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-इन पांच स्थावर कायों के दृष्टि से इनके तैजस और कार्मण शरीर व्यक्तिगत होते हैं। जीव सूक्ष्म और बादर इन दो भागों में विभक्त होते हैं। प्रस्तुत
ये जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं। अतः यह जान लेना प्रकरण में वनस्पति-काय के सूक्ष्म जीव विवक्षित हैं। वनस्पति के
आवश्यक है कि ये वनस्पति के जीव स्थूल वनस्पति से नितान्त मूल प्रकार दो हैं—प्रत्येक शरीरी और साधारण शरीरी। जिसके एक
भिन्न हैं। ये सूक्ष्म निगोद के जीव जैन विज्ञान की दृष्टि से जब शरीर में अनन्त जीव होते हैं, उसे साधारण शरीरी कहा जाता है। अव्यवहार राशि से उक्रमण या उद्वर्तन करते हैं, तो वे स्थूल वनस्पति एक शरीर में अनन्त जीव के साथ रहने की प्रवृत्ति को परिभाषित । में विकास करते हैं। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह करते हुए उस शरीर को निगोद कहा जाता है तथा उन जीवों को परिवर्तन ऐसी स्थिति में होता है जब लोक में किसी प्रकार के संतुलन निगोदजीव कहा है।' इनको एक ही शरीर के होने की प्रामाणिकता में परिवर्तन होता है। जब कोई जीव मोक्ष प्राप्त करता है, तो संसार १. जीवा.५।३७-कतिविधा णं भंते ! णिओदा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च । पण्णत्ता, तं जहा-णिओदा य णिओदजीवा य ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं ।। २. पण्ण.१।४८,गा.५३-५७ -
जह अयगोलो धंतो, जाओ तत्ततवणिजसंकासो । समयं वक्वंताणं, समयं तेसिं सरीरनिव्वत्ती।
सव्वो अगणिपरिणतो, निगोयजीवे तहा जाण ॥ समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसासे ।।
एगस्स दोण्ह तिण्ह व, संखेज्जाण व न पासिउं सक्का । एक्कस्स उ जं गहणं, बहूण साहारणाण तं चेव।
दीसंति सरीराई, णिगोयजीवाणऽणताणं ॥ जं बहुयाणं गहणं, समासओ तं पि एगस्स ।
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