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________________ भगवई २४५ श.२: उ.१: सू.६६ से जहानामए कटूठसगडिया इवा, पत्तस- अथ यथानामकं काष्ठशकटिका इति वा, जैसे कोई इंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी गडिया इ वा, पत्त-तिल-भंडगसगडिया इ पत्रशकटिका इति वा, पत्र-तिल-भाण्डक- हुई गाड़ी, पत्र-सहित तिलों और मिट्टी के बर्तनों वा, एरंडकट्ठसगडिया इ वा, इंगालस- शकटिका इति वा, एरण्डकाष्टशकटिका इति से भरी हुई गाड़ी, एरंड की लकड़ियों से भरी हुई वा, अंगारशकटिका इति वा, उष्णे दत्ता गाड़ी तथा कोयलों से भरी हुई गाड़ी ताप लगने ससई गच्छइ, ससदं चिटइ, एवामेव अहं पि शुष्का सती सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, से सूखी हुई सशब्द चलती है और सशब्द ठहरती ससदं गच्छामि, ससई चिट्ठामि। एवमेव अहमपि सशब्दं गच्छामि, सशब्द है, इसी प्रकार मैं भी सशब्द (किट-किट की तिष्ठामि । ध्वनि-सहित) चलता हूं और सशब्द ठहरता हूं। तं अत्यि ता मे उहाणे कम्मे बले वीरिए तद् अस्ति तावन् मे उत्थानं कर्म बलं वीर्यं ।। इस समय मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरिसक्कार-परकमे तं जावता मे अस्थि पुरुषकार-पराक्रमः तद् यावन् मे अस्ति पुरुषकार-पराक्रम है; अतः जब तक मुझ में उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे उत्थानं कर्म बलं वीर्यं पुरुषकार-पराक्रमःउत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे यावच्च मे धर्माचार्यः धर्मोपदेशकः श्रमणः है और जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन, भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, तावता भगवान् महावीरः जिनः सुहस्ती विहरति, सुहस्ती', श्रमण भगवान् महावीर विहार कर रहे मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए, तावन् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां, हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहपंडुरे ____फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते यथापाण्डुरे उषाकाल में पौ फटने पर प्रफुल्लित उत्पल और पभाए रत्तासोयप्पकासे, किंसुय-सुयमुह- प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशे किंशुक-शुकमुख- अर्ध विकसित कमल वाले तथा पीत आभा गुंजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उहि- गुजार्द्धरागसदृशे, कमलाकरषण्डबोधके, वाले प्रभात में लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, यम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा तोते के मुख और गुजार्ध के समान रंग वाले, जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता ज्वलति श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा ___ जलाशय गत नलिनी वन के उद्बोधक सहस्ररश्मि नमंसित्ता णचासन्ने णातिदूरे सुस्सूसमाणे नमस्थित्वा नात्यासन्नः नातिदूरः सुश्रूषमाणः दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान अभिमुहे विणएणं पंजलियडे पजुवासित्ता अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपास्य । होने पर श्रमण भगवान् महावीर को समणेणं भगवया महावीरेणं अब्मणुण्णाए श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् वंदन-नमस्कार कर, न अति निकट न अति दूर समाणे सयमेव पंच महब्बयाणि आरोवेत्ता, स्वयमेव पंच महाव्रतानि आरोप्य, श्रमणाश्च सुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख समणा य समणीओ य खामेत्ता तहारूवेहिं __ श्रमणीश्च क्षमयित्वा तथारूपैः स्थविरैः कृत- सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करूं, श्रमण थेरेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं- योग्यैः सार्धं विपुलं पर्वतं शनैः-शनैः आरुह्य भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त होने पर मैं स्वयं सणियं दुरुहित्ता मेहघणसंनिगासं देव- मेघघनसन्निकाशं देवसन्निपातं पृथिवीशिला- ही पांच महाव्रतों की आरोपणा करूं, श्रमणसन्निवातं पुढवीसिलापट्टयं पडिलेहित्ता, पट्टकं प्रतिलेख्य, दर्भसंस्तारकं संस्तुत्य दर्भ- -श्रमणियों से क्षमायाचना करूं, तथारूप कृतयोग्य दभसंथारगं संथरित्ता दब्मसंथारोवगयस्स संस्तारोपगतस्य संलेखनाजोषणाजुष्टस्य प्रत्या- स्थविरों के साथ धीमे-धीमे विपुल पर्वत पर चढ़ संलेहणाझूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइ- ख्यातभक्तपानस्य प्रायोपगतस्य कालमनव- सघन मेघ के समान श्याम वर्ण वाले देवों के क्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंख- कांक्षमाणस्य विहर्तम इति कत्वा एवं संप्रेक्षते, ____समागम-स्थल पृथ्वीशिलापट्ट का प्रतिलेखन करूं, माणस विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेइ, संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् (उस पर) डाभ का बिछौना बिछाऊं, उस डाभ संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा के बिछौने पर बैठ संलेखना की आराधना में उद्वियम्मि सरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे शिशि शियो ज्वलति यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव जलनि यौव श्रमणः भगवान महावीरः तत्रैव लीन हो. भक्तपान का प्रत्याख्यान कर तेयसा जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नात्यासन्नः करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, बंदित्ता नम- नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित सित्ता णचासत्रे णातिदूरे सुस्सूसमाणे णमं- विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपास्ते । और तेज से देदीप्यमान होने पर जहां श्रमण भगसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे वान महावीर हैं वहां आता है, आकर श्रमण भगपञ्जुवासइ॥ वान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर सुश्रुषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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