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________________ भगवई १. सूत्र ३१४-३१६ हका जल का एक प्रकार है। पण्णवणा में बादर अप्काय के अनेक प्रकार निर्दिष्ट हैं, जैसे—अवश्याय, हिम, कुहासा, ओला आदि-आदि।' अभयदेवसूरि ने स्नेहकाय की व्याख्या नहीं की । मलयगिरि ने बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में स्नेह का अर्थ अवश्याय, कोहरा, हिम, बर्फ आदि किया है। प्रस्तुत आलापक में 'स्नेह' के साथ 'सूक्ष्म' विशेषण का प्रयोग किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि ओस से भी सूक्ष्म जल-द्रव्य के लिए 'सूक्ष्म-स्नेह' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रकरण के अनुसार वह निरन्तर गिरता है। बृहत्कल्पभाष्य में स्निग्घ और रूक्ष काल के अनुसार उसके गिरने के समय का निर्देश किया गया है। शिशिरकाल में प्रथम और अन्तिम प्रहर में वह अधिक मात्रा में गिरता है। ग्रीष्मकाल में प्रथम और अन्तिम प्रहर के आधे-आधे भाग में वह अधिक गिरता है। शेष समय में वह अल्प गिरता है। अभयदेवसूरि का भी यही अभिमत है । ' ३१७ सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥ सूक्ष्म स्नेहकाय की तुलना आर्द्रता (humidity) से की जा सकती है। सूक्ष्म स्नेहकाय ऊंचे, नीचे और तिरछे तीनों लोकों में गिरता १. पण्ण. १ ।२२,२३ । २. बृ.क.भा.गा. ५२१, भाग १, पृ.१५१ १४१ पढम- चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वञ्जिता । पायं ठवे सिणेहादिरक्खणट्ठा पवेसे वा ॥ भाष्य पढम चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वज्रेत्ता । पायं ठवे सिणेहाइरक्खणट्ठा पवेसे वा ॥ Jain Education International तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । ३. भ.बृ.१ । ३१४–'सदा' सर्वदा 'समियं' ति सपरिमाणं न बादराप्कायवदपरिमितमपि, अथवा 'सदा' इति सर्वर्तुषु 'समित' मिति रात्री दिवसस्य च पूर्वापरयोः प्रहरयोः, तत्रापि कालस्य स्निग्धेतरभावमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चावसेयमिति, यदाह है। इस आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि वह तमस्काय से गिरता है और पूरे वातावरण में व्याप्त होता है। ' वृत्तिकार ने ऊर्ध्व की व्याख्या में वर्तुलवैताढ्य आदि का उल्लेख किया है। 'अधो' की व्याख्या में अधोलोकवर्ती ग्रामों का उल्लेख किया है। शब्द-विमर्श सदा समित-वृत्तिकार ने 'सदा' का अर्थ सर्वदा और 'समित' का अर्थ सपरिमाण किया है। वैकल्पिक रूप में 'सदा' का अर्थ सब ऋतुओं में तथा 'समित' का अर्थ रात और दिन का प्रथम और अन्तिम प्रहर किया है। किन्तु 'समित' शब्द का अर्थ विमर्शनीय है। 'सदा समितं' यह एक वाक्यांश है। प्रस्तुत आगम में विभिन्न सन्दर्भों में इसका अनेक बार प्रयोग हुआ है। 'समित' शब्द समि धातु से निष्पन्न है । उसका अर्थ है इकट्ठा होना, संगठित होना, मिलना आदि।' इसलिए समित का अर्थ एकत्रित अथवा संगठित रूप' किया जा सकता है। श. १: उ.६: सू. ३१४-३१७ ३१७. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। लपितपात्रं बहिर्न स्थापयेत् स्नेहादिरक्षणार्थायेति । 'सूक्ष्मः स्नेहकायः' इति अपकायविशेष इत्यर्थः । For Private & Personal Use Only ४. भ. ६ | ७८ अस्थि भंते ! तमुक्काए ओराला बलाहया संसेयंति ? सम्मुच्छंति ? वासं वासंति ? हंता अस्थि ॥ ५. भ.वृ.१ । ३१५— 'उड्डे' त्ति ऊर्ध्वलोके वर्तुलवैताढ्यादिषु, 'अहे' त्ति अधोलोकग्रामेषु । ६. आप्टे – समि- Tocome ormeet together, be united, orjoined with. www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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