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श.१: उ.६: सू.३१२-३१६ १४०
भगवई स्पिनोज़ा के अनुसार मन और शरीर एक ही द्रव्य के दो परिभोक्ता और परिभोग्य पहलु हैं। दोनों का सम्बन्ध ईश्वर से है। वे इसी सत्ता के चिंतन और विस्तार के रूप हैं। एक ही द्रव्य के गुण के आकार होने के
___ प्रस्तुत सूत्र में जीव को परिभोक्ता और पुद्गलों को परिभोग्य कारण दोनों एक दूसरे से मिले रहते हैं, यद्यपि क्रियात्मक रूप से
कहा है। जीव और पुद्गल में परिभोक्ता और परिभोग्य का सम्बन्ध मन और शरीर अलग-अलग जान पड़ते हैं। शरीर पर सदैव बाह्य
है। जीव चेतन है, इसलिए वह परिभोक्ता है। अजीव अचेतन है, पदार्थों के प्रभाव पड़ते रहते हैं तथा उसमें निरन्तर नए रूप दिखलाई
इसलिए वह परिभोग्य है। चेतन में परिभोक्तत्व नामक पर्याय है और पड़ते रहते हैं। इन परिवर्तनों का बोध मन को होता रहता है।
अचेतन में परिभोग्य नामक पर्याय है।' इन पर्यायों के कारण चेतन
और अचेतन में सम्बन्ध स्थापित होता है। हम खाते हैं, काम करते बाह्य पदार्थ जिस रूप में शरीर को प्रभावित करते रहते हैं, मन उसको भी उसी रूप में ही जान सकता है, वास्तविक रूप में नहीं।
हैं, इन्द्रिय-संवेदन करते हैं, श्वास लेते हैं, बोलते हैं और सोचते हैं, इससे सिद्ध होता है-मन को शरीर प्रभावित नहीं करता और न
यह अचेतन का चेतन पर प्रभाव है। मस्तिष्क द्वारा संवेदन और शरीर को मन प्रभावित करता है।
ज्ञान हो रहा है। अचेतन शरीर चेतन बना हुआ है, यह चेतन का
अचेतन पर प्रभाव है। लाइबनित्स ने शरीर और मन के सम्बन्ध को कार्य-कारणवाद के आधार पर समझाया। उसके अनुसार शरीर और मन स्वतन्त्र
सम्बन्ध-प्रक्रिया को जानने का दार्शनिक मूल्य ही नहीं, इसका रूप से अपनी-अपनी क्रियाएं करते हैं। मन और शरीर एक दूसरों
आध्यात्मिक मूल्य भी है। सम्बन्धातीत, विचारातीत और प्रभावातीत
साधना सम्बन्ध-ज्ञान के बाद ही संभव हो सकती है। को प्रभावित नहीं करते।
मनोविज्ञान में भी जिज्ञासा है कि शरीर और मन में क्या निष्कर्ष सम्बन्ध है ? शरीर मन को प्रभावित करता है या मन शरीर को
१. अनेकान्त दृष्टि के अनुसार चेतन और अचेतन सर्वथा भिन्न नहीं प्रभावित करता है ? ठीक यही प्रश्न हमारे सामने है कि शरीर चेतना को प्रभावित करता है या चेतना शरीर को प्रभावित करती
हैं; इसलिए इनमें सम्बन्ध हो सकता है। है ? इन दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? ये दोनों एक दूसरे को
२. इस संसार में जीव का अस्तित्व पुदगल-मुक्त नहीं है; संसारी जीव प्रभावित करते हैं, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। शरीर और
शुद्ध नहीं, यौगिक है। चेतना को सर्वथा स्वतन्त्र स्वीकार कर हम व्याख्या नहीं कर सकते,
३. चेतन और अचेतन को सर्वथा भिन्त्र तथा संसारी जीव को सर्वथा किन्तु सापेक्ष स्वतन्त्र स्वीकार कर हम उनके सम्बन्ध और पारस्परिक
शुद्ध मानने पर ही सम्बन्ध की समस्या जटिल बनती है। प्रभाव की व्याख्या कर सकते हैं।
४. भेद-विज्ञान की साधना चेतन और अचेतन के सापेक्ष सम्बन्ध के
आधार पर ही हो सकती है, आध्यात्मिक दृष्टि से इसका बहुत
मूल्य है। सिणेहकाय-पदं
नेहकाय-पदम्
नेहकाय-पद ३१४. अत्थि णं भंते ! सदा समितं सुहमे अस्ति भदन्त ! सदा समितं सूक्ष्मः स्नेहकायः ३१४. 'भन्ते ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय सदा संगठित सिणेहकाए पवडइ ? पतति ?
रूप में गिरता है ? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति।
हां, गिरता है।
३१५. से भंते ! किं उडुढे पवडइ ? अहे
पवडइ ? तिरिए पवडइ ?
तद् भदन्त ! किम् ऊर्ध्वं पतति ? अधः ३१५. भन्ते ! क्या वह ऊंचे लोक में गिरता है ? पतति ? तिर्यक् पतति ?
नीचे लोक में गिरता है ? तिरछे लोक में गिरता
गोयमा ! उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिए वि पवडइ॥
गौतम ! ऊर्ध्वमपि पतति, अधोऽपि पतति, तिर्यगपि पतति।
गौतम ! ऊर्ध्वलोक में भी गिरता है, नीचे लोक में भी गिरता है, तिरछे लोक में भी गिरता है।
३१६. जहा से बायरे आउयाए अण्ण- यथा स बादरः अप्कायः अन्योन्यसमायुक्तः ३१६. जैसे वह बादर (स्थूल) जल परस्पर संयुक्त
मण्णसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिदुइ तहा चिरमपि दीर्धकालं तिष्ठति तथा सोऽपि? होकर बहुत लम्बे समय तक रहता है, क्या वैसे ही णं से वि?
सूक्ष्म जल भी बहुत लम्बे समय तक रहता है ? णो इणद्वे समटे । सेणं खिप्पामेव विद्धंस- नो अयमर्थः समर्थः। स क्षिप्रमेव विध्वंस- गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह शीघ्र ही मागच्छइ। मागच्छति।
विध्वंस को प्राप्त हो जाता है।
१. (क) भ.२५/१७-जीवदव्वाणं अजीवदव्या परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति।
नो अजीवदव्वाणं जीवदव्या परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति ॥
(ख) भ.बृ.प.८५६-इह जीवद्रव्याणि परिभोजकानि सचेतनत्वेन ग्राहकत्वाद इतराणि तु परिभोग्यान्यचेतनतया ग्राह्यत्वात् ।
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