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भगवई
श.१: उ.६: सू.३१२,३१३
भाष्य १. सूत्र ३१२,३१३ जीव और पुद्गल का सम्बन्ध
और पुद्गल में नेह है आकर्षित होने की अर्हता। इस उभयात्मक
स्नेह के द्वारा परस्पर संबंध स्थापित हो जाता है। नौका में छिद्र है जीव और पुद्गल दोनों में अत्यन्ताभाव है। जीव चेतन है
तो पानी अपने आप उसमें भर जाएगा। प्रस्तुत सूत्र में इस संबंध और पुद्गल अचेतन है। चेतन कभी अचेतन नहीं बनता, अचेतन
को बन्ध, स्पर्श, अवगाह, स्नेह-प्रतिबद्ध और 'घटा' (एकीभूत अवकभी चेतन नहीं बनता। अस्तित्व की त्रैकालिक स्वतन्त्रता होने पर
स्था) इन पांच रूपों में प्रतिपादित किया गया है। भी क्या इनमें कोई सम्बन्ध हो सकता है ? प्रस्तुत सूत्र में इस विषय पर विमर्श किया गया है। गौतम ने जिज्ञासा की-भंते ! क्या जीव
आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव में होने वाले स्निग्ध परिणाम का और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ, नेह-प्रतिबद्ध और एक
प्रतिपादन किया है। घटक के रूप में रहते हैं ?
शरीर और मनस् का सम्बन्ध भगवान् ने इसका उत्तर 'हां' में दिया। इन दोनों तत्त्वों में
जैन दर्शन के अनुसार चित्त चैतन्य स्वरूप और मनस् अचेतन प्रगाढ संबंध है। संबंध और विसंबंध के आधार पर जीव दो भागों
होता है। फिर भी व्यावहारिक परिभाषा के अनुसार हम चित्त के में विभक्त हो जाते हैं—संसारी जीव और मुक्त जीव। जो जीव
स्थान पर मन का प्रयोग कर रहे हैं। मन चेतन है और शरीर पुद्गल के साथ घुले-मिले होते हैं, वे संसारी या बद्ध कहलाते हैं।
अचेतन है, फिर इन दोनों में सम्बन्ध कैसे हो सकता है और ये पुद्गल से अस्पृष्ट जीव मुक्त या सिद्ध कहलाते हैं।
एक दूसरे को प्रभावित कैसे कर सकते हैं ? इस विषय में जैन संसारी जीव पुद्गल से इतने घुलेमिले हैं कि पुद्गल को । दर्शन का स्पष्ट अभिमत है कि संसारी जीव स्वरूपतः चेतन होते हुए छोड़कर उनकी व्याख्या नहीं की जा सकती। आचार्य सिद्धसेन ने।
भी पुद्गल या शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। इन दोनों में नैसर्गिक जीव और पुद्गल के संबंध पर अनेकान्त दृष्टि से विचार किया है।
सम्बन्ध चला आ रहा है। ये दोनों परस्पर संबद्ध हैं; इसलिए इनमें उन्होंने बताया है-जीव और पुद्गल दूध और पानी की तरह परस्पर अन्न क्रिया होती है और इसलिए वे एक दसरे को प्रभावित करते
ओत-प्रोत हैं; इसीलिए उनमें 'यह जीव' और 'वह पुद्गल' है-ऐसा विभाग करना उचित नहीं है। यह जीव और पुद्गल का अभेदात्मक
पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में मन और शरीर के सम्बन्ध की प्रतिपादन है। रूप आदि तथा बाल्य, यौवन आदि पर्याय शरीरगत
समस्या बहुत दिनों से चली आ रही है। देकार्ते ने मन की धारणा होते हैं, पर वे जीव से अप्रभावित हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता।
को नए रूप में प्रस्तुत किया। उससे पहले दार्शनिकों ने मन और जीव में इन्द्रिय-ज्ञान, स्मृति-ज्ञान आदि के पर्याय होते हैं, उन्हें भी
शरीर को एक ही तत्त्व के दो पहलुओं के रूप में स्वीकार किया पुद्गल से अप्रभावित नहीं माना जा सकता। इस दृष्टि से जीव और
था। परन्तु देकार्ते ने मन को शरीर से भिन्न माना। पहले मन तथा पुद्गल में प्रगाढ संबंध स्थापित होता है। उनका तात्त्विक स्वरूप
शरीर सापेक्ष माने जाते थे, परन्तु देकार्ते ने निरपेक्ष रूप से दोनों भिन्न है, इसलिए उनमें स्वरूपगत भेद भी है। यह जीव और पुद्गल
की सत्ता स्वीकार की। देकार्ते के अनुसार शरीर भौतिक गुणों का के भेदाभेद की अनेकान्त दृष्टि है।'
विस्तार है और मन में चेतन तत्त्व वर्तमान है। अब प्रश्न यह जीव और पुद्गल का संबंध भौतिक होता है या अभौतिक?
उपस्थित होता है कि शरीर का मन पर और मन का शरीर पर यह एक प्रश्न है। संसारी अवस्था में जीव सर्वथा अभौतिक नहीं कैसे प्रभाव पड़ता है ? जब हम कोई कार्य अपनी इच्छा से करते होता; इसलिए जीव और पुद्गल के संबंध को भौतिक माना जा
हैं तो जान पड़ता है कि मन का शरीर पर प्रभाव है और जब
है तो जान पड़ता है कि मन का श सकता है। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार यह संबंध केवल जीव या पुद्गल
ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि शरीर का की ओर से ही नहीं होता, किन्तु दोनों ओर से होता है। इसकी
मन पर प्रभाव होता है। जानकारी हमें 'स्नेह-प्रतिबद्ध' से मिलती है। जीव में स्नेह है-आश्रव
१. सम्मति.१।४७,४८
अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तं व' ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्ध-पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ।। रूआइ पज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि ।
ते अण्णोण्णाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थमि ।। २. पञ्चास्तिकाय, गा.१२८-१३० पर तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, पृ.१८५---इह हि संसा
रिणो जीवादनादिवंधनोपाधिवशेन बिग्धः परिणामो भवति । ३. भ.१३।१२६–आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे ?
गोयमा ! नो आया मणे, अण्णे मणे ।
रूविं भंते ! मणे ? अरूविं मणे? गोयमा ! रूविं मणे, नो अरूविं मणे । सचित्ते भंते ! मणे ? अचिते मणे ? गोयमा ! नो सचित्ते मणे, अचित्ते मणे । जीवे भंते ! मणे ? अजीवे मणे ? गोयमा ! नो जीवे मणे, अजीवे मणे । जीवाणं भंते मणे? अजीवाणं मणे? गोयमा ! जीवाणं मणे, नो अजीवाणं मणे ।
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