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________________ भगवई १३७ श.१: उ.६: सू.३१०,३११ ३११. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अष्टविधा ३११. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अट्ठविहा लोयट्टिती जाव जीवा कम्म- लोकस्थितिः यावज् जीवाः कर्मसंगृहीताः ? है—लोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञाप्त है यावत् संगहिया ? जीव कर्म के द्वारा संग्रहीत हैं ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे वत्थि- गौतम ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः गौतम ! जैसे कोई पुरुष किसी मशक में हवा माडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता उप्पिं सितं बंधइ, वस्तिम आटोपयति, वस्तिम् आटोप्य उपरि भरता है, उसमें हवा भरकर ऊपर (मुंह के स्थान बंधित्ता मज्झे गठिं बंधइ, बंधित्ता उवरिल्लं सितं बध्नाति, बद्ध्वा मध्ये ग्रन्थिं बध्नाति, पर) गांठ देता है। फिर मशक के मध्य भाग में गठि मयइ, मइत्ता उवरिल्लं देसं वामेइ, बद्ध्या उपरितनं ग्रन्थिं मुञ्चति. मकत्वा गांठ लगाता है, वहां गांठ लगाकर ऊपर की गांठ वामेत्ता उवरिल्लं देसं आउयायस्स पूरेइ, उपरितनं देशम् वमयति, वनयित्वा उपरितनं को खोलता है। उसे खोलकर ऊपर के भाग की पूरेत्ता उप्पिं सितं बंधइ, बंधित्ता मज्झिल्लं देशम् अप्कायेन पूरयति, पूरयित्वा उपरि हवा को बाहर निकाल देता है। उसे निकाल कर गंठिं मुयइ । से नूणं गोयमा ! से आउयाए सितं बध्नाति, बद्ध्वा मध्यमं ग्रन्थिं मुञ्चति। ऊपर के भाग को जल से भरता है। उसे जल तस्स वाउयायस्स उप्पिं उवरिमतले चिट्ठइ? अथ नूनं गौतम ! सः अप्कायः तस्य वायु- से भरकर ऊपर गांठ देता है, वहां गांठ देकर कायस्य उपरि उपरितनतले तिष्ठति ? फिर मध्य भाग की गांठ खोलता है। गौतम ! क्या वह पानी उस वायु के ऊपर-ऊपर ठहरता हंता चिट्ठइ। से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-अदुविहा लोयडिती जाव जीवा कम्मसंगहिया। हन्त तिष्ठति। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-अष्टविधा लोकस्थितिः यावन् जीवाः कर्मसंगृहीताः। से जहा वा केई पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थि- स यथा वा कश्चित् पुरुषः वस्तिम् आटो- माडोवेत्ता कडीए बंधइ, बंधित्ता अत्थाह- पयति, वस्तिम् आटोप्य कट्यां बध्नाति, मतारमपोरुसियंसि उदगंसि ओगाहेजा। से बद्ध्वा अस्ताघातारापौरुषेये उदके अव- नृणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स गाहते। अथ नूनं गौतम ! स पुरुषः तस्य उवरिमतले चिदुइ ? अप्- कायस्य उपरितनतले तिष्ठति ? हां, ठहरता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैलोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञाप्त है यावत् जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं। जैसे कोई पुरुष मशक में हवा भरता है, उसमें हवा भरकर उसे अपने कटि-प्रदेश में बांधता है, वहां बांधकर अथाह, अतर तथा अपौरुषेय जल में अवगाहन करता है । गौतम ! क्या वह पुरुष जल के ऊपर-ऊपर ठहरता है ? हां, ठहरता है। इसी प्रकार लोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञप्त है यावत् जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं । हंता चिट्ठइ। हन्त तिष्ठति। एवं वा अविहा लोयद्विती जाव जीवा एवं वा अष्टविधा लोकस्थितिः यावज् जीवाः कम्मसंगहिया॥ कर्मसंगृहीताः। भाष्य १. सूत्र ३१०,३११ ___आकाश-प्रतिष्ठित आकाश स्व-प्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने का उल्लेख नहीं है।' उदधि-प्रतिष्ठित पृथ्वी है। पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित है, यह सापेक्ष वचन है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित है।' पृथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी हैं। यह भी सापेक्ष वचन है। त्रस-स्थावर प्राणी आकाश, पर्वत और विमान पर प्रतिष्ठित भी होते हैं।' जीव-प्रतिष्ठित अजीव वृत्तिकार ने अजीव का अर्थ 'शरीर आदि पुद्गल' किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अजीव-सृष्टि का जो नानात्व है, जितने दृश्य-परिवर्तन और परिणमन हैं, वे जीव के द्वारा कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। कर्म-प्रतिष्ठित जीव-जीव का जितना नानात्व है, उसके जितने परिर्वतन और विविध रूप हैं, वे सब कर्म के द्वारा निष्पन्न हैं। इस १. भ.बृ.१।३१० ----आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति। २. वही,१।३१०–वाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव। ३. वही,१।३१०–तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रायिकमेव, अन्यथाऽऽकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति । ४. वही,१।३१० तथाऽजीवाः—शरीरादिपुद्गलरूपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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