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भगवई
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श.२: उ.५: सू.८७-६३ मैथुनवृत्तिक-इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं, मैथुनवृत्तिकः नेह-स्नेह का अर्थ है-वीर्य और रक्त। और मैथुनप्रत्ययिक ।' ९. मेहणणं भंते ! सेवमाणस केरिसए मैथनं भटन्त | सेवमानम्य कीटा.
! मैथुनं भदन्त ! सेवमानस्य कीदृशः असंयमः ९६.'भन्ते ! मैथुन सेवन करने वाले जीव के कैसा असंजमे कजई ? क्रियते ?
असंयम होता है ? गोयमा ! से जहानामए केइ पु गौतम ! सः यथानामकः कश्चित् पुरुषः 'रूय' गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष तपी हुई शलाका रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणएणं नालिकां वा बूरनालिकां वा तप्तेन कनकेन से रूई से भरी हुई नालिका अथवा बूर से भरी समभिद्धंसेजा, एरिसए णं गोयमा ! मेहुणं समभिध्वंसेत, ईदृशः गौतम ! मैथुनं सेव- हुई नालिका को ध्वस्त कर देता है । गौतम ! सेवमाणस्स असंजमे कजइ ॥ मानस्य असंयमः क्रियते ।
मैथुन सेवन करने वाले जीव के ऐसा असंयम
होता है।
भाष्य
१. सूत्र १६
प्रस्तुत सूत्र में मैथुन के द्वारा होने वाले असंयम को समझाया पहलू है। उसकी वर्जना का दूसरा पहलू है--हिंसा। संभोग-काल में गया है। भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य पर बहुत बल दिया। अब्रह्मचर्य उत्कर्षतः नौ लाख जीवों की हिंसा होती है। वे जीव पञ्चेन्द्रिय होते से राग या मूर्छा बढ़ती है। यह अब्रह्मचर्य की वर्जना का एक हैं। वृत्तिकार ने इस श्रुति का उल्लेख किया है। ६०. सेवं भंते ! सेवं मंते ! जाब विहरइ ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! यावत् वि- ६०. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है, हरति।
इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर
६१.तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः राजगृहान्
नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडि- नगराद गुणशिलाच चैत्यात प्रतिनिष्कामति, निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जण- प्रतिनिष्कम्य बहिः जनपदविहारं विहरति । वयविहारं विहरइ ॥
श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर और गुणशिल चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर राजगृह के आस-पास जनपद में विहरण कर रहे हैं।
तुंगियानयरी-समणोवासय-पदं ६२. तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं
नयरी होत्या-वण्णओ॥
तुङ्गिकानगरी-श्रमणोपासक-पदम् तुंगिकानगरी-श्रमणोपासक-पद तस्मिन् काले तस्मिन् समये तुङ्गिका नाम नगरी ६२. उस काल और उस समय तुंगिका नामक नगरी आसीत्-वर्णकः ।
थी-नगर-वर्णन |
६३. तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तर- तस्याः तुङ्गिकायाः नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये ६३. उस तुंगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्भाग
पुरत्थिमे दिसीमागे पुष्फवतिए नाम चेइए दिग्भागे पुष्पवतिकं नाम चैत्यम् आसीत्- (ईशानकोण) में पुष्पवतिक नामक चैत्य थाहोत्या-वण्णओ॥ वर्णकः ।
चैत्य-वर्णन ।
१.भ..२०६५-नामकर्मनिवर्तितायां योनौ अथवा कर्ममदनोद्दीपको व्यापारस्तत्
कृतं यस्यां सा कर्मकृताऽतस्तस्याम् । २. वही,२।५-मैथुनस्य वृत्तिः-प्रवृत्तिर्यस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको मैथुनं वा प्रत्य
यो-हेतुर्यस्मिन्नसौ स्वार्थिके कप्रत्यये मैथुनप्रत्ययिकः। ३. वही,२।८६ मतं-कर्पासविकारस्तभृता नालिका—शुषिरवंशादिरूपा
रूतनालिका ताम् । एवं बूरनालिकामपि, नवरं बूरं-वनस्पति विशेषावयवविशेषः। 'समभिद्धंसेज'त्ति रूतादिसमभिध्वंसनात् इह चायं वाक्यशेषो दृश्यः–एवं मैथुन सेवमानो योनिगतसत्त्वान् मेहनेनाभिध्वंसयेत् । एते च किल ग्रन्थान्तरे पञ्चेन्द्रियाः श्रूयन्त इति।
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