SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श.२: उ.५: सू.८६-८८ भगवई २६२ भाष्य १.सूत्र १६ वृत्तिकार ने पिता की संख्या के लिए बैल आदि का उदाहरण शब्द-विमर्श प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार बहुसंख्यक बैल आदि का वीर्य गाय पृथकृत्व—पृथक्त्व का अर्थ है दो से नौ। यह सामयिक संज्ञा आदि की योनि में प्रविष्ट होनेपर जो जीव पैदा होता है, वह बहुपितृक है। होता है।' १७. एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं एकजीवस्य भदन्त ! एकभवग्रहणेन कियन्तः ७.'भन्ते ! एक जीव के एक भव में कितने जीव केवइया जीवा पुत्तत्ताए हबमागच्छंति ? जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आगच्छन्ति ? पुत्र-रूप में उत्पन्न हो सकते हैं ? गोयमा ! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि गौतम ! जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा, गौतम ! जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपृहत्तं जीवा णं उत्कर्षेण शतसहस्रपृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय नौ लाख जीव पुत्र-रूप में उत्पन्न हो सकते हैं। पुत्तत्ताए हव्यमागच्छंति ॥ 'हव्वं' आगच्छन्ति । ५८.सेकेणटेणं भंते ! एवं बुचइ-जहण्णेणं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जघन्येन १८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैएको वा दो या तिण्णि वा, उक्कोसेणं ___एको वा द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षेण शत- एक जीव के जघन्यतः एक, दो या तीन और सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्व- सहस्रपृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आग- उत्कर्षतः नौ लाख जीव पुत्र-रूप में उत्पन्न हो मागच्छंति ? च्छन्ति ? सकते हैं ? गोयमा ! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए गौतम ! स्त्रियाः पुरुषस्य च कर्मकृतायां योन्यां गौतम ! स्त्री और पुरुष की कर्मकृत (कामोद्दीपक) जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुप्प- मैथुनवृत्तिको नाम संयोगः समुत्पद्यते । तौ योनि में मैथुनवृत्तिक नामक संयोग उत्पन्न होता जइ। ते दुहओ सिणेहं चिणंति, चिणित्ता द्वितः स्नेहं चिनुतः, चित्वा तत्र जघन्येन एको है । वे स्त्री और पुरुष स्नेह (वीर्य और शोणित) तत्थ णं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षेण शतसहस्त्र- का संचय करते हैं। संचय करन के पश्चात् वहां वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आ- जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ पुत्तत्ताए हबमागच्छंति । से तेणटेणं गच्छन्ति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते लाख जीव पुत्र-रूप में उत्पन्न हो सकते हैं। गौतम! गोयमा ! एवं बुच्चइ-जहण्णेणं एको वा –जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा, इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जघन्यतः दो वा तिण्णि वा, उकोसेणं सयसहस्सपुहत्तं उत्कर्षेण शतसहस्रपृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ लाख जीव जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ॥ 'हब्ब' आगच्छन्ति । पुत्ररूप में उत्पन्न हो सकते हैं। भाष्य १. सूत्र ८७,८८ वृत्तिकार ने बहुपुत्र की बात समझाने के लिए मत्स्य आदि का उदाहरण दिया है। मछली के एक साथ नौ लाख बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं और निष्पन्न भी हो सकते हैं। मनुष्य-स्त्री की योनि में नौ लाख जीव उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु निष्पन्न बहुत नहीं होते। अर्थात् एक, दो अथवा तीन हो सकते हैं (देखें मूलपाठ)। जयाचार्य के अनुसार ये नौ लाख संज्ञी (समनस्क) जीव होते हैं।' संभोग के समय असंज्ञी (अमनस्क) जीव भी पैदा होते है।' उनकी संख्या यहां निर्दिष्ट नहीं है। शब्द-विमर्श कर्मकृत-वृत्तिकार ने कर्म के दो अर्थ किए हैं---नाम कर्म अथवा काम-वासना का उद्दीपक कर्म। प्रस्तुत प्रकरण में वैकल्पिक अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। १. भ.वृ.२१८६मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादशमुहूर्तान् यावद्योनिभूतं भवति, ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च वीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्रो भवतीत्यत उक्तम्— 'उक्कोसेणं सयपुहुत्तस्से' त्यादि । २. प्र.सारो.वृ.प.४०२,द्वार२४६,गा.१३६४ की वृत्ति-पृथक्त्वं चेह द्विप्रभृति रानवभ्य इति समयोक्तं ज्ञेयम् । ३. भ.वृ.२१६७ मत्स्यादीनामेकसयोगेऽपि शतसहस्रपृथक्त्वं गर्भे उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्यैकभवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां भवतीति । मनुष्ययोनों पुनरुत्पन्ना अपि बहवो न निष्पद्यन्त इति । ४. भ.जो.१। ४०।३० ते इण अर्थे करिनैं हे गोतम, जब शीघ्र ही आय। पुत्रपणे नवलक्ष ऊपजै, ए सन्नी तणी अपेक्षाय ।। ५. पण्ण,११६४-- सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगतजीवकलेवरेसु वा थी-पुरिस संजोएसु वा.....एस्थ णं सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy