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________________ श.२: उ.५: सू.६४ २६४ भगवई ६४. तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे तत्र तुझिकायां नगर्यां बहवः श्रमणोपासकाः ६४. 'उस तुंगिका नगरी में अनेक श्रमणोपासक समणोवासया परिवसंति-अड्डा दित्ता परिवसन्ति-आढ्याः दीप्ताः विस्तीर्णविपुल- रहते हैं। वे सम्पन्न और दीप्तिमान हैं। उनके वित्थिण्णविपुलभवण-सयणासण-जाणवाह- भवन-शयनासन-यानवाहनाकीर्णाः बहुधन- विशाल और प्रचुर भवन शयन-आसन वाले और णाइण्णा बहुधण-बहुजायरूव-रयया आयो- बहुजातरूप-रजताः आयोग-प्रयोगसंप्रयुक्ताः यान-वाहन से आकीर्ण हैं। उनके पास प्रचुर धन, गपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुलभत्तपाणा विच्छतिविपुलभक्तपानाः बहुदासी-दास-गो- सोना और चांदी हैं। वे आयोग और प्रयोग में बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलय-प्पभूया महिष-गवेलकप्रभूताः बहुजनस्य अपरिभूताः संलग्न हैं। उनके घर में विपुलमात्रा में भोजन बहुजणस्स अपरिभूया अभिगय-जीवाजीवा अभिगतजीवाजीवाः उपलब्धपुण्यपापाः आ- और पान दिया जा रहा है। उनके पास अनेक उवलद्धपुण्ण-पावा आसव-संवर-निजर- श्रव-संवर-निर्जरा-क्रियाऽधिकरण-बन्ध-प्र- दास, दासी, गाय, भैंस और भेड़े हैं। वे बहुजन किरियाहिकरणबंध-पमोक्खकुसला अस- मोक्षकुशलाः असहाय्याः देवासुरनाग- के द्वारा अपरिभवनीय हैं। जीव-अजीव को हेजा देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खस्स- सुवर्णयक्षराक्षसकिनरकिंपुरुषगरुडगान्धर्व- जानने वाले, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाले, कित्ररकिंपरिसगरुलगंधव्वमहोरगादिएहि महोरगादिकैः देवगणैः नैर्ग्रन्थात् प्रवचनाद् आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अनतिक्रमणीयाः नैर्ग्रन्थे प्रवचने निःशंकिताः और मोक्ष के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं अणतिक्कमणिज्जा, निग्गंथे पावयणे निस्सं- निष्कांक्षिताः निर्विचिकित्साः लब्धार्थाः निश्चल, देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किया निकंखिया निन्वितिगिच्छा लद्धद्वा गृहीतार्थाः पृष्टार्थाः अभिगतार्थाः विनि- किनर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि गहियहा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा चितार्थाः अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्ताः इद- देव-गणों के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अविचलनीय, विणिच्छियद्वा अद्विमिंजपेम्माणुरागरता मायुष्मन् नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् अर्थः इदं परमार्थः इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका-रहित, कांक्षा-रहित, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे अयं पर- शेषम् अनर्थः उशितपरिघाः अपावृतद्वाराः । विचिकित्सा-रहित, यथार्थ को सुनने वाले, ग्रहण ' मटे सेसे अणद्वे, ऊसियफलिहा अवंगुय- 'चियत्त'अन्तःपुरगृहप्रवेशाः चतुर्दशाष्ट- करने वाले, उस विषय में प्रश्न करने वाले, उसे दुवारा चियत्तंतेउरघरप्पवेसा चाउद्दसट्ट- मोद्दिष्टपूर्णमासीषु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यग् । जानने वाले, उसका विनिश्चय करने वाले, (निर्ग्रमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अनुपालयन्तः श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रासुक- न्थ प्रवचन के) प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थिअणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासु- -एषणीयेन अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र- मञ्जावाले 'आयुष्मन् । यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन यथार्थ एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं -प्रतिग्रह-कम्बल-पादप्रौंछनेन पीठ-फलक- है। यह परमार्थ है, शेष अनर्थ है', (ऐसा मानने वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं पीढ- ___ -शय्या-संस्तारकेण औषध-भैषज्येन प्रति- वाले), आगल को ऊंचा और दरवाजे को खुला फलग-सेजा-संथारएणं ओसह-भेसजेणं लाभयन्तः बहुभिः शीलव्रतगुण-विरमण- रखने वाले, अन्तःपुर और दूसरों के घर में बिना पडिलाभमाणा बहुहिं सीलब्बयगुण- -प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः यथापरिगृहीतैः ।। किसी रुकावट के प्रवेश करने वाले, चतुर्दशी, -रमण-पचक्खाण-पोसहोववासेहिं अहा- तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन्तः विहरन्ति । अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध परिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं का सम्यक् अनुपालन करने वाले, श्रमण-निर्ग्रन्थों भावेमाणा विहरंति ॥ को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादौंछन, औषध-भैषज्य, पीठ-फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाले, बहुतशीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा तथा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं। भाष्य १. सूत्र ६४ प्रस्तुत सूत्र में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन है। श्रमण की उपासना करनेवाले गृहस्थ का नाम है श्रमणोपासक । इसका समानार्थक शब्द है श्रावक। इस वर्णन में श्रमणोपासकों की सामाजिक और धार्मिक दोनों अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। सम्पन्नता, दानशीलता और अपरिभवनीयता यह उनकी सामाजिक अवस्था का चित्रण है। तत्त्वज्ञान, आत्म-निर्भरता, धर्म के प्रति दृढ आस्था, व्रतों की आराधना और तपस्या यह उनके धार्मिक जीवन का चित्रण है। भौतिक जीवन के साथ धार्मिक जीवन का योग होना श्रावक जीवन की अपनी विशेषता है। १. द्रष्टव्य, भ.२२५ का भाष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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