SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई २६५ श.२: उ.५: सू.६४ शब्द-विमर्श आद्य-धन-धान्य आदि से परिपूर्ण। दीप्त-दीप्तिमान् । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'प्रसिद्ध' किया है।' औपपातिक वृत्ति में 'दित्त' पाठ का अर्थ दृप्त-दर्पवान किया है।' 'दित्त' का प्रसिद्ध अर्थ चिन्तनीय है। ओवाइयं में 'दित्ता, वित्ता ये दो पाठ मिलते हैं।' 'वित्त' का अर्थ 'प्रसिद्ध है।' प्रतीत होता है प्रस्तुत प्रकरण में पाठ और वृत्ति दोनों की अव्यवस्था हुई ___ आयोग और प्रयोग आयोग का अर्थ है-द्विगुण आदि की वृद्धि के लिए अर्थ देना। प्रयोग का अर्थ है-ब्याज।' औपपातिक वृत्ति में आयोग का अर्थ 'अर्थ-लाभ' और प्रयोग का अर्थ 'उपाय' किया गया है। हो सकता है राजा कृणिक के प्रसंग में यह अर्थपरिवर्तन किया गया। स्थानांग वृत्ति में 'प्रयोग' का अर्थ 'ऋण लेनेवालों को अर्थ देना' किया है। विच्छर्दित-त्यक्त अथवा विच्छित्तिमान-विभूतियुक्त। गवेलक-भेड़।' पुण्य-शुभ कर्म को पुण्य कहते हैं। पाप-अशुभ कर्म को पाप कहते हैं। आश्रय-कर्म-आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं। संवर आश्रव के निरोध को संवर कहते हैं। निर्जरा तपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने से जो आत्म-उज्जवलता होती है, उसे निर्जरा कहते हैं। क्रिया--द्रष्टव्य भ.११२७६-२८६ और भ.११३६४-३७२ का भाष्य। अधिकरण गाड़ी, यंत्र आदि ।" बन्ध-कर्म-पुद्गलों के ग्रहण को बन्ध कहा जाता है। मोक्ष-समस्त कर्मों का फिर बन्ध न हो, ऐसा क्षय होने से आत्मा अपने ज्ञानदर्शनमय स्वरूप में अवस्थित होती है, उसका नाम मोक्ष है। कुशल हेय और उपादेय का ज्ञाता । सत्य के प्रति स्वयं निश्चल वृत्तिकार ने असहेज शब्द के दो अर्थ किए हैं: १. आत्मकर्तृत्व एवं कर्म-सिद्धान्त पर जिन्हें इतना भरोसा होता है. वे विपत्ति के क्षणों में भी किसी दिव्य शक्ति के सहयोग की आकांक्षा नहीं करते, इसलिए वे असहेज (असहाय्य) कहलाते हैं। २. अन्य मतावलम्बियों द्वारा सम्यक्त्व से विचलित करने के प्रयलों के उपरान्त भी जो विचलित नहीं होते, अपने सिद्धान्तों और साधना-पथ में अविचल रहने के लिए किसी बाहरी सहयोग की अपेक्षा नहीं रखते, वे असहेज होते हैं। इसका फलितार्थ यह है-चे स्वयं तत्त्वज्ञ और जैन दर्शन के मर्मज्ञ होते हैं। इसलिए अन्य दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत तर्कों को प्रतिहत करने में वे स्वयं समर्थ होते हैं और जिन-शासन में अत्यन्त भावित होने के कारण वे दूसरों का सहयोग नहीं चाहते।" श्रीमञ्जयाचार्य ने भगवती-जोड़ में लम्बी चर्चा प्रस्तत की है।" विघ्ननिवारण, सामाजिक प्रतिष्ठा और अध्यात्म-साधना के विकास की दृष्टि से यदि श्रावक दिव्य शक्तियों का सहयोग लेता है, तो वह अनुचित नहीं है। जयाचार्य के अभिमत में यह असहेज स्वतंत्र साधना के सन्दर्भ में विशेष प्रयोग है, जिस प्रकार श्रमण के लिए प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में गोचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय का विधान किया गया है, वह साधु के लिए अनिवार्य साधना-पद्धति नहीं है तथा उनके समाचरण के अभाव में साधुत्व खंडित नहीं होता," वैसे ही श्रावक दिव्य शक्तियों का सहयोग न ले, यह उनका विशेष गुण है, पर सम्यक्त्व के साथ उसकी अनिवार्यता नहीं है। यदि अनिवार्यता हो, तो आगमों के निम्न प्रंसग हमें एक बार पुनः चिन्तन का अवसर देते हैं: १. भ.६.२ ६४-दित्तत्ति दीप्ताः-प्रसिद्धाः दृप्ता वा दर्पिताः। २. औ.बृ.पृ.२१ दित्तेति दृप्तो दर्पवान् । ३. ओवा.सू.१४। ४. औ.वृ.पृ.२१ वित्तेत्ति प्रसिद्धः । ५. (क) म.वृ.२।६४–आयोगो द्विगुणादिवृद्धयाऽर्थप्रदानं प्रयोगश्च कलान्तरं तौ संप्रयुक्तौ व्यापारितौ यैस्ते तथा । (ख) आप्टे. कलान्तरम् -Interest, Profitमासे शतस्य यदि पंच कलान्तरं स्यात् (लीलावती); प्रयोगः-(17) (a) Principal, loan bearing interest; (b) Lending money on usury. ६. औ.व.पृ.२२ –आयोगस्य अर्थलाभस्य, प्रयोगाः उपायाः । ७. स्था.वृ.प.४०० आयोगेन द्विगुणादिलाभेन, द्रव्यस्य प्रयोगः–अधमर्णानां दानम्। ८. भ.व.२०६४–विच्छर्दितं वा--विविधविच्छित्तिमद्विपुलं भक्तं च पानकं च येषां ते तथा। ६. वही,२।६४—गवेलका–उरभ्राः । १०. (क) म.वृ.२१६४-अधिकरणं गंत्री-यंत्रकादि । (ख) आप्टे.—गंत्री A car drawn by oxen. ११. भ.वृ.२१६४–'असहेज्जेत्यादि-अविद्यमानं साहाय्यं परसाहायकम् अत्यन्तसमर्थत्वाद्येषां ते साहाय्यास्ते च ते देवादयश्चेति कर्मधारयः, अथवा व्यस्तमेवेदं तेनासाहाय्या-आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः अथवा पाषण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वा जिनशासनात्यन्तभावितत्वाचेति । १२. भ.जो.91४१।१५७३। १३. उत्तर.२६/८ का टिप्पण न.५॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy