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________________ श.२: उ.५: सू.६४ २६६ भगवई गृहीताई-अर्थ का अवधारण करनेवाला । पृष्टार्य-सन्दिग्ध अर्थ के विषय में प्रश्न करनेवाला । अभिगृहीतार्थ-प्रश्न के उत्तर को समझने वाला। विनिश्चिताई अर्थ के तात्पर्य को समझने वाला। अस्थिमजाप्रेमानुरागरक्त-मजागत संस्कार अत्यन्त सुदृढ़ होता है। उसे बदलना सहज संभव नहीं होता। विशेष जानकारी के लिए स्यगडो, २१२१६२ का टिप्पण द्रष्टव्य है। आगल को ऊंचा और दरवाजे को खुला रखने वाले–'उन श्रमणोपासकों का अन्तःकरण उन्नत और स्फटिक की भांति निर्मल स्वच्छ है। तात्पर्य की भाषा में जिन-प्रवचन की प्राप्ति के कारण वे परितुष्ट मनवाले हैं।' यह वृद्ध-व्याख्या है। यहां 'वृद्ध' शब्द के द्वारा अभयदेवसूरि का संकेत सूत्रकृतांग के वृत्तिकार शीलांकाचार्य की ओर प्रतीत होता है। शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की वृत्ति में उसियफलिहे की यही व्याख्या की है। वृत्तिकार ने इसके दो विकल्प और उद्धत १. अभयकुमार ने महाराणी धारिणी की उदग्र आकांक्षा को तृप्त करने के लिए देव की आराधना कर अभीप्सित कार्य में सफलता प्राप्त की, जिसका विस्तृत वर्णन हमें नायाघम्मकहाओ (अ.१) में उपलब्ध है। २. अंतगडदसाओ (३।४७-५०)के अनुसार श्री कृष्ण ने अपने छोटे भाई गजसुकुमाल के लिए देव की आराधना की और इच्छित फल प्राप्त किया। ३. चक्रवर्ती भरत ने चक्रवर्ती बनने से पहले अष्टम भक्त तप कर देवाराधना की जिसका प्रमाण है-जंबुद्दीवपण्णत्ती (३।२०)। ४. श्रीकृष्ण ने लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित नामक देव की आराधना कर उसकी सहायता ली थी (नायाघम्मकहाओ, १।१६।२३७) औपपातिकवृत्ति और राजप्रश्नीयवृत्ति में असहेज का अर्थ 'सम्यक्त्व से अविचलित रहना' ही किया है, जो जयाचार्य के चिन्तन को और अधिक पुष्ट करता है। यदि दिव्य शक्तियों के सहयोग से सम्यक्त्व की सुरक्षा में खतरा होता, तो श्री कृष्ण और भरत चक्रवर्ती दिव्य शक्तियों की आराधना क्यों करते ? जयाचार्य के मन्थन का नवनीत यही है कि श्रावक वैसे साहाय्य की इच्छा नहीं करता, जिससे सम्यक्त्व और सत्य की निष्ठा में विचलन का भाव उत्पन्न हो। असुर और नागकुमार ये दोनों भवनपति जाति के देव हैं। सुवर्ण यह ज्योतिष्क जाति का देव है। यक्ष, राक्षस, किजर, किंपुरुष, गंधर्व और महोरग–ये व्यन्तर जाति के देव हैं।' गरुड-रुड भवनपति जाति के देव हैं। निःशंकित तत्त्व के विषय में सन्देह से मुक्त। निष्कांक्षित कुतत्त्व की आंकाक्षा से मुक्त। निर्विचिकित्स-धार्मिक आराधना के फल के विषय में सन्देह से मुक्त। लब्बार्व–अर्थ का श्रवण करनेवाला। यहां 'अर्थ' शब्द सूत्र का वाच्य, तत्त्व का प्रतिपाद्य और लक्ष्य-इन तीन सन्दर्भो में प्रयुक्त १. वे श्रावक अपने घरों के द्वार की आगल को ऊंचा रखते २. अपनी अतिशय उदारता के कारण वे गृहद्वार के आगल रखते ही नहीं, किंवाड़ सदा खुला रखते हैं।' वृत्तिकार ने किवाड़ खुले रखने के दो कारण बतलाए हैं। उन्हें सद्दर्शन प्राप्त हुआ है, इसलिए किसी अन्य सम्प्रदाय से उन्हें कोई भय नहीं हैं; इसलिए वे खुले द्वार रहते हैं—यह वृद्ध-व्याख्या है। दूसरा मत यह बतलाया है-उदारता की दृष्टि से वे किवाड़ खुला रखते हैं। ___ आगल को ऊंचा और किवाड़ को खुला रखने का कारण सूत्रकृतांगचूर्णि में निर्दिष्ट है, वह आगम-परम्परा के अधिक अनुकूल प्रतीत होता है—जैन श्रमणों की यह मर्यादा है कि वे बन्द किंवाड़ को खोल नहीं सकते और खुले किंवाड़ों को बन्द नहीं कर सकते। दसवेआलियं का कथन है--कवाडं णो पणोल्लेखा। दूसरी बात है-घर में बार-बार आने-जाने वाले लोग किंवाड़ को खोलते हैं या बन्द करते हैं, तो उससे जीवों की विराधना होती ता १.औ.वृ.पृ.१८८राज.वृ.पृ.२६०–अविद्यमानसाहाय्यः, कुतीर्थिकप्रेरितः सम्यक् त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते। २. भ.वृ.२।६४-तत्र देवा-वैमानिकाः 'असुरे'ति असुरकुमाराः 'नाग'त्ति नागकुमाराः, उभयेऽप्यमी भवनपतिविशेषाः, 'सुवण्ण'त्ति सद्वर्णाः ज्योतिष्काः यक्षराक्षसकिंनरकिंपुरुषाः व्यन्तरविशेषाः ‘गरुल त्ति गरुडध्वजाः सुपर्ण कुमाराः भवनपतिविशेषाः गन्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषाः। ३. वही,२६४-अस्थीनि च कीकसानि मिजा च तन्मध्यवर्ती धातु- रस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा, अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ता ये ते तथा। ४. द्रष्टव्य,सूय.२१२१७१ का टिप्पण। ५. भ.वृ.२।६४-'ऊसियफलिह'त्ति उशितम्-उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिकं चितं येषां ते उशितस्फटिकाः मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमानसा इत्यर्थ इति वृद्धव्याख्या, अन्ये त्वाहुः-उड्रितः-अर्गलास्थानादपनीयो/कृतो न तिरश्चीनः कपाटपश्चाभागादपनीत इत्यर्थः, परिघः-अर्गला येषां ते उशितपरिधाः अथवोशितो-गृहद्वारादपगतः परिधो येषां ते उशितपरिधाः, औदार्यातिशयादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकाणां गृहप्रवेशनार्थ मनर्गलितगृहद्वारा इत्यर्थः। ६. वही,२१६४–'अवंगुयदुवारे ति अप्रावृतद्वाराः कपाटादिभिरस्थगित गृहद्वारा इत्यर्थः, सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पाषण्डिकाद् बिभ्यति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरसस्तिष्ठन्तीति भाव इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्वाहुः -भिक्षुकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः । ७. दसवे.५1१1१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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