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श.१: उ.५: सू.२३७-२४४
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भगवई
२३७. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् नैरयिकाः २३७. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक नेरइया किंमणजोगी? वइजोगी? काय- किं मनोयोगिनः ? वाग्योगिनः ? काय- क्या मनयोगी होते हैं ? वचनयोगी होते हैं ? जोगी? योगिनः ?
काययोगी होते हैं ? तिण्णि वि॥ त्रयोऽपि।
वे तीनों ही होते हैं।
२३८. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव
मणजोए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा॥
अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् मनोयोगे २३८. 'भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् मनयोग वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? सप्तविंशतिः भङ्गाः।
सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
२३६. एवं वइजोए॥
एवं वाग्योगे।
२३६. इसी प्रकार वचनयोग में वर्तमान नैरयिकों
के भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
२४०. एवं कायजोए॥
एवं काययोगे।
२४०. इसी प्रकार काययोग में वर्तमान नैरयिकों के
भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र २३८-२४०
सामान्य काययोग में सत्ताईस भंगों का निर्देश है, किन्तु केवल कार्मण काययोग में अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। यहां सामान्य
काययोग विवक्षित है; इसलिए उनका निर्देश नहीं है।'
२४१. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् नैरयिकाः २४१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक
नेरइया किं सागारोवउत्ता ? अणागारो- किं साकारोपयुक्ताः ? अनाकारोपयुक्ताः ? साकारोपयुक्त होते हैं ? अथवा अनाकारोपयुक्त वउत्ता?
होते हैं ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारो- गौतम ! साकारोपयुक्ताः अपि, अनाकारो- गौतम ! वे साकारोपयुक्त भी होते हैं, अनाकारोवउत्ता वि॥ पयुक्ताः अपि।
पयुक्त भी होते हैं।
२४२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् २४२. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी में यावत् सागारोवओगे वट्टमाणा नेरइया किं कोहो- साकारोपयोगे वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधो- साकारोपयोग में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त वउत्ता? सत्तावीसं भंगा॥ पयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः।
होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
२४३. एवं अणागारोवउत्ते वि सत्तावीसं भंगा॥
एवं अनाकारोपयुक्तेऽपि सप्तविंशतिः भङ्गाः। २४३. इसी प्रकार अनाकारोपयोग में वर्तमान
नैरियकों के भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
२४४. एवं सत्त वि पुढवीओ नेयवाओ, नाणत्तं लेसासु॥
एवं सप्त अपि पृथिव्यः ज्ञातव्याः, नानात्वं २४४. इस प्रकार सातों ही पृथ्वियां ज्ञातव्य हैं, लेश्यासु।
केवल लेश्या में नानात्व है।
संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा
संगहणी गाहा
काऊ य दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥१॥
कापोती च द्वयोः, तृतीयायां मिश्रिता, नीलिका चतुर्थ्याम् । पञ्चम्यां मिश्रा, कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥
प्रथम और द्वितीय पृथ्वी में कापोत लेश्या, तीसरी पृथ्वी में मिश्र कापोत और नीललेश्या, चौथी पृथ्वी में नीललेश्या, पांचवीं पृथ्वी में मिश्रनील और कृष्णलेश्या, छठी पृथ्वी में कृष्णलेश्या और सातवीं पृथ्वी में परमकृष्ण लेश्या होती है।
१. भ.बृ.१।२३८-इह यद्यपि केवलकार्मणकाययोगेऽशीतिर्भङ्गाः संभवन्ति- तथाऽपि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाययोगाश्रयणाच सप्तविंशतिरुक्तेति ।
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