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________________ भगवई ११७ श.१: उ.५: सू.२४४,२४५ भाष्य १. मिश्र तीसरी और पांचवी पृथ्वी में मिश्र लेश्या का निर्देश है। लेश्या और कुछ भागों में नील लेश्या होती है। पांचवी पृथ्वी के उसका स्पष्ट अर्थ यह है-तीसरी पृथ्वी के कुछ भागों में कापोत कुछ भागों में नील और कुछ भागों में कृष्ण लेश्या होती है। असुरकुमारादीणं नाणादसासु असुरकुमारादीनां नानादशासु असुरकुमार आदि का नाना दशाओं में कोहोवउत्तादि भंग-पदं क्रोधोपयुक्तादि भङ्ग-पदम् क्रोधोपयुक्त आदि भड़-पद २४५. चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारा चतुष्षष्टिषु भदन्त ! असुरकुमारावासशत- २४५. भन्ते ! चौसठ लाख असुरकुमार-आवासों में वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारा- सहस्रेषु एकैकस्मिन् असुरकुमारावासे असुर- से प्रत्येक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरवासंसि असुरकुमाराणं केवइया ठितिवाणा कुमाराणां कियन्ति स्थितिस्थानानि प्रज्ञप्तानि? कुमारों के कितने स्थिति-स्थान (आयु- विभाग) पण्णत्ता ? प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! असंखेजा ठितिहाणा पण्णत्ता। गौतम ! असंख्येयानि स्थितिस्थानानि प्रज्ञ- गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान प्रज्ञप्त हैं। जहणिया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरं तानि । जघन्यिका स्थितिः यथा नैरयिकाः उनकी जघन्य स्थिति नैरयिकों के समान हैं। -पडिलोमा भंगा माणियव्वा। तथा, नवरं-प्रतिलोमाः भनाः भणितव्याः। विशेष ज्ञातव्य यह है कि प्रतिलोम भंग (लोभो पयुक्त आदि) वक्तव्य हैं।' सब्वे वि ताव होज लोभोवउत्ता। सर्वेऽपि तावद् भवेयुः लोभोपयुक्ताः । वे सब असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं। अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ते य। अथवा लोभोपयुक्ताश्च मायोपयुक्तश्च।। अथवा लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त । अथवा अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ता य। अथवा लोभोपयुक्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च।। लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त। इस गमक (सदृश एएणं गमेणं नेयध्वं जाव थणियकुमारा, एतेन गमेन नेतव्यं यावत् स्तनितकुमाराः, । पाठ-पद्धति) के अनुसार यावत् स्तनितकुमार देवों नवरं-नाणतं जाणियवं॥ नवरं-नानात्वं ज्ञातव्यम् ॥ की वक्तव्यता,केवल इनका नानात्व ज्ञातव्य है। भाष्य १. प्रतिलोम भंग वक्तव्य हैं नरयिक के प्रकरण में क्रोध, मान, माया और लोभ इस क्रम से भंगों का निर्देश किया गया है। असुरकुमार लोभ प्रधान होते हैं, इसलिए उनके भंग लोभ, माया, मान और क्रोध-इस क्रम रिकाध इस क्रम से बनते हैं। भंग-रचना की प्रक्रिया पूर्ववत् ज्ञातव्य है।' २. केवल इनका नानात्व ज्ञातव्य है नरयिक और असरकमार में संहनन. संस्थान और लेश्या का नानात्व होता है। देखें यंत्र नारक भवनपति संहनन संहनन-रहित अनिष्ट आदि पुद्गलों का परिणमन संस्थान हुण्डक संहनम-रहित इष्ट आदि पुद्गलों का परिणमन भवधारणीय में समचतुरस्त्र उत्तर वैक्रिय में अन्यतर कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् लेश्या कृष्ण, नील, कापोत १. भ.वृ.१।२४५-नारकप्रकरणे क्रोधमानादिना क्रमेण भङ्गक निर्देशः कृतः, असुरकुमारादिप्रकरणेषु लोभमायादिनाऽसौ कार्य इत्यर्थः अत एवाह--- 'सब्वेवि ताव होज लोहोवउत्त'ति देवा हि प्रायो लोभवन्तो भवन्ति, तेन सर्वेऽप्यसुरकुमारा लोभोपयुक्ताः स्युः। द्विकसंयोगे तु लोभोपयुक्तत्वे बहुवचनमेव मायोपयोगे त्वेकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भङ्गको। एवं सप्तविंशतिर्भङ्गाः कार्याः। २. भ.वृ.१।२४५ नारकाणामसुरकुमारादीनां च परस्परं नानात्वं ज्ञात्वा प्रश्न सूत्राणि उत्तरसूत्राणि चाध्येयानीति हृदयं, तच्च नारकाणामसुरकुमारादीनां च संहननसंस्थानलेश्यासूत्रेषु भवति, तच्चैवम् –'चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेषु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा किंसंघयणी ? गोयमा ! असंघयणी, जे पोग्गला इट्ठा कंता ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति, एवं संठाणेवि, नवरं भवधारणिजा समचउरंससंठिया उत्तरवेउविया अन्नयरसंठिया एवं लेसासु वि, नवरं कइ लेसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि, तंजहा किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा, 'चउसट्ठीए णं जाव, कण्हलेसाए बट्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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