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श.१: उ.५: सू.२४६,२४७
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भगवई
२४६. असंखेजेसु णं भंते ! पुढविक्काइया- असंख्येयेषु भदन्त ! पृथिवीकायिका- २४६. भन्ते ! असंख्येय लाख पृथ्वीकायिक आवासों वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइया- वासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् पृथ्वीकायिका- में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक आवास में रहने वाले वासंसि पुटविक्काइयाणं केवइया ठितिद्वाणा वासे पृथ्वीकायिकानां कियन्ति स्थिति-पृथ्वीकायिक जीवों के कितने स्थितिस्थान प्रज्ञप्त पण्णता?
स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गोयमा ! असंखेजा ठितिद्वाणा पण्णत्ता, तं गौतम ! असंख्येयानि स्थितिस्थानानि प्रज्ञ- गौतम ! उनके असंख्येय स्थितिस्थान प्रज्ञप्त हैं, जहा जहणिया ठिई जाव तप्पाउम्गु- तानि, तद् यथा-जघन्यिका स्थितिः यावत् जैसे-जघन्य स्थिति से लेकर यावत् विवक्षित कोसिया ठिई॥ तत्प्रायोग्योत्कर्षिका स्थितिः।
पृथ्वीकायिक आवास के प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति।
२४७. असंखेजेसु णं भन्ते ! पुढविक्काइया- असंख्येयेषु भदन्त ! पृथिवीकायिकावासशत- २४७. 'भन्ते ! असंख्येय लाख पृथ्वीकायिक वाससयसहस्सेस एगमेगंसि पुढविकाइया- सहस्त्रेषु एकैकस्मिन् पृथिवीकायिकावासे जघ- आवासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक आवास में वासंसि जहणियाए ठितीए वट्टमाणा न्यिकायां स्थित्यां वर्तमानाः पृथिवीकायिकाः जघन्य स्थिति में वर्तमान पृथ्वीकायिक जीव क्या पुढविक्काइया किं कोहोवउत्ता ? माणो- किं क्रोधोपयुक्ताः ? मानोपयुक्ताः ? मायो- क्रोधोपयुक्त होते हैं ? मानोपयुक्त होते हैं ? वउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता? पयुक्ताः ? लोभोपयुक्ताः ?
मायोपयुक्त होते हैं ? लोभोपयुक्त होते हैं ? गोयमा ! कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि, गौतम ! क्रोधापयुक्ताः अपि, मानोपयुक्ताः । गौतम ! क्रोधोपयुक्त भी होते हैं, मानोपयुक्त भी मायोवउत्ता वि, लोभोवउत्ता वि। अपि, मायोपयुक्ताः अपि, लोभोपयुक्ताः होते हैं, मायोपयुक्त भी होते है, लोभोपयुक्त भी अपि।
होते हैं। एवं पुटविकाइयाणं सब्बेसु वि ठाणेसु एवं पृथ्वीकायिकानां सर्वेषु अपि स्थानेषु । इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के सभी स्थान अभंगयं, नवरं तेउलेस्साए असीति- अभङ्गक, नवरं तेजोलेश्यायाः अशीति- भंग-शून्य होते हैं, केवल तेजोलेश्या में वर्तमान भंगा।। भङ्गाः।
पृथ्वीकायिक जीवों के अस्सी भंग वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र २४७
क्रोध, मान, माया और लोभ-इन सभी कषायों में उपयुक्त पृथ्वीकायिक जीव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। इसलिए इनका । कोई भंग नहीं बनता। लेश्याद्वार में तेजोलेश्या वाले जीवों के अस्सी भंग बनते हैं। देवलोक से च्युत देव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न
होते हैं। उनकी संख्या एक, दो, तीन आदि होती है, इसलिए उनके अस्सी भंग बन जाते हैं। सूत्र २४५ में नानात्व आया है। उसी की अनुवृत्ति मानकर वृत्तिकार ने नैरयिक और पृथ्वीकायिक जीवों का अंतर बतलाया है। देखें यंत्र
नैरयिक
पृथ्वीकायिक
वैक्रिय, तेजस, कार्मण
शरीर संहनन संस्थान लेश्या
औदारिक, तैजस, कार्मण शेवात हुण्डक-मसूरय कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् मिथ्यादृष्टि
हुण्डक (भवधारणीय, उत्तरवैक्रिय) कृष्ण, नील, कापोत तीन तीन नियमा' तीन (भजना) मन, वचन, काय
ज्ञान
अज्ञान
दो मति, श्रुत
योग
काय
माणा किं कोहोवउत्ता? गोयमा ! सब्वेवि ताव होज लोहोवउत्ता' इत्यादि। एवं 'नीलकाऊतेऊवि' नागकुमारादिप्रकरणेषु तु 'धुलसीए नागकुमारा- वाससयसहस्सेसु' इत्येवं "चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीइ" इत्यादेवचनात् प्रश्नसूत्रेषु भवनसंख्यानानात्वमवगम्य सूत्राभिलाषः कार्य इति।
१. भ.वृ.११२४७–पृथ्वीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या, सा च तदा
देवलोकाच्युतो देव एकोऽनेको वा पृथ्वीकायिकेषूत्पद्यते तदा भवति,ततश्च तदैकत्वादिभवनादसीतिर्भङ्गका भवन्तीति । २. देखें १।२३४ का भाष्य ।
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