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भगवई
पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में कर्मग्रन्थ के अनुसार सास्वादन सम्यक्त्व माना जाता है; इसलिए ज्ञानद्वार में उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अस्तित्व होता है। इस ज्ञानद्वय के अधिकारी जीव अल्प संख्या में होते हैं; इसलिए इनके अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। वृत्तिकार ने इस विषय में लिखा है कि पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व अत्यन्त अल्प होता है; इसलिए उनके अस्सी भंग यहां विवक्षित नहीं हैं। सास्वादन सम्यक्त्व के विषय में दो परम्पराएं उपलब्ध हैं—आगमिक परम्परा और कर्मग्रन्थ परम्परा । आगमिक परम्परा के अनुसार विकलेन्द्रिय में
२५१. बेइंदिय- तेइंदिय - चउरिदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइं चेव, नवरं— अब्महिया सम्मत्ते, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे य एएहिं असी भंगा। जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तागाते ठाणे सव्वे अभंगयं ॥
२४८. एवं आउकाइया वि ॥
एवं अपकायिकाः अपि ।
२४८. इसी प्रकार अपकायिक जीव ज्ञातव्य हैं।
२४६. तेउक्काइय-वाउक्काइयाणं सव्वेसु वि तेजस्कायिक-वायुकायिकानां सर्वेषु अपि २४६. तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों के ठाणे अभंग ॥
स्थानेषु अभङ्गकम् ।
सभी स्थान भंग-शून्य होते हैं।
२५०. वणप्फइकाइया जहा पुढविकाइया ॥
वनस्पतिकायिकाः यथा पृथिवीकायिकाः ।
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१. कर्मग्रन्थ-चतुर्थकर्मग्रन्थ (षडशीति), गा. १६,१६थीनरपणिंदी चरमा चउ अणहारे दु सन्नि छ अपज्जा । सुम अपन विणा सासणि इत्तो गुणे वुच्छं || पणतिरिचउसुरनरएन र सन्निपणिदि भव्व तसि सव्वे । इग विगल भू दग वणे दुदु एगं गइतस अभव्वे ॥
श. १: उ.५: सू.२४७-२५१
सास्वादन सम्यक्त्व की संभावना स्वीकृत है। प्रस्तुत प्रकरण के सूत्र २५१ में यह स्पष्ट है । कर्मग्रन्थ की परम्परा में उक्त तीन स्थावर-कायों में भी सास्वादन सम्यक्त्व की संभावना मान्य है ।
१. जिन स्थानों में
नैरयिकों में अस्सी भंग के तीन स्थान प्रतिपादित हैं - १. एक समयादि - अधिक जघन्य स्थिति । २. जघन्य अवगाहना । ३ . मिश्र दृष्टि । विकलेन्द्रिय में अस्सी भंग के प्रथम दो स्थान प्राप्त हैं। उनमें मिश्र दृष्टि नहीं होती, इसलिए तीसरे स्थान की वर्जना की गई है।
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द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां येषु स्थानेषु नैरयिकाणाम् अशीतिर्भङ्गाः तेषु स्थानेषु अशीतिश्चैव, नवरं - अभ्यधिकाः सम्यक् - त्वे, आभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने च एतेषु अशीतिर्भङ्गाः । यैः स्थानैः नैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गाः तेषु स्थानेषु सर्वेषु अभङ्गकम् ।
वृत्तिकार ने पृथ्वी आदि में सास्वादन सम्यक्त्व की अत्यन्त विरलता का स्वीकार किया है, किन्तु पण्णवणा में उनके सम्यग् दृष्टि का सर्वथा अस्वीकार है। विकलेन्द्रिय में उसका स्वीकार है। भगवई में भी पृथ्वीकायिक जीवों में सम्यक्त्व का स्वीकार नहीं है । अतः वृत्तिकार का मत कर्मग्रन्थानुसारी हो सकता है।
२. भ. वृ. १ । २५० ननु पृथिव्यप्वनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं कर्मग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते। तत एव च ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च अल्पाश्चैते इत्येवमशीतिर्भङ्गाः सम्यग्दर्शनाभिनिबोधिक श्रुतज्ञानेषु भवन्तु ? नैवं, पृथिव्यादिषु सास्वादनभावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात्, तत एवोच्यते
भाष्य
२५०. वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक जीवों के समान है।
वृत्तिकार ने वृद्धों के मत का उल्लेख किया है। वृद्धमत के अनुसार विकलेन्द्रिय के अस्सी भंगों के स्थान पर भी अभंग सम्मत है। चूर्णि में अस्सी भंगों का स्वीकार है।" वृत्तिकार ने यहां 'वृद्ध' शब्द के द्वारा किन्हीं अन्य प्राचीन व्याख्याकारों की ओर इंगित किया
है ।
३. पण्ण. १६ । २०३ ।
२५१. जिन स्थानों में' नैरयिकों के अस्सी भंग हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं। विशेष ज्ञातव्य है कि सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान इनमें अधिक भंग -अस्सी भंग होते हैं। जिन स्थानों में नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं, विकलेन्द्रिय जीवों के वे सब स्थान भंग-शून्य होते हैं।
“उभयाभावो पुढवाइएसु विगलेसु होज्ज उववण्णो । "त्ति 'उभय' प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नरूपमिति ।
४. भ. २४।१६७ ।
५. भ. वृ. १ । २५१ - वृद्धैस्त्विह सूत्रे कुतोऽपि वाचनाविशेषाद् यत्राशीतिस्तत्राप्यभङ्गकमिति व्याख्यातमिति ।
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६. भ. चू.पू. २ बितिचउरिंदियाणं सत्तावीस ठाणे अभंगगं बहुत्ताओ। असीति ठाणे असीति चेव - सासातणसम्मदिट्ठी विरहं संभवो य यातं बहुत्व आभिणिबोहि सुत्तणाण समत्वेषु असीति ।
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