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________________ श.१: उ.५: सू.२५१-२५३ १२० भगवई २. अधिक भंग नैरयिकों के दृष्टि-द्वार और ज्ञान-द्वार में सत्ताईस भंग होते हैं। विकलेन्द्रियों के सास्वादन सम्यकृत्व, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में अस्सी भंग होते हैं। इस निर्देश के लिए 'अभ्यधिक' शब्द का प्रयोग किया गया है।' ३. भंग-शून्य विकलेन्द्रिय में एक साथ क्रोध-आदि-उपयुक्त जीव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं. इसलिये इनका कोई भंग नहीं बनता। २५२. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यथा नैरयिकाः तथा २५२. पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव नैरयिकों की तहा भाणियव्वा, नवरं-जेहिं सत्तावीसं भणितव्याः, नवरं-यैः सप्तविंशतिभङ्गाः तैः भांति वक्तव्य हैं, विशेष ज्ञातव्य है कि जहां भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं ॥ अभङ्गकं कर्तव्यम्। नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं, वहां वे भंग -शून्य' होते हैं। भाष्य १. भंग-शून्य तिर्यज्च पञ्चेन्द्रिय में एक साथ क्रोध-आदि-उपयुक्त जीव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं, इसलिये इनका कोई भंग नहीं बनता। २५३. मणुस्सा वि। जेहिं ठाणेहि नेरइयाणं मनुष्याः अपि। यैः स्थानैः नैरयिकाणाम् २५३. मनुष्य भी दस द्वार से वक्तव्य हैं, जिन स्थानों असीतिभंगा तेहिं ठाणेहिं मणुस्साण वि अशीतिभनाः तैः स्थानैः मनुष्याणाम् अपि में नैरयिकों के अस्सी भंग होते हैं, उन स्थानों में असीतिमंगा भाणियब्वा। जेसु सत्तावीसा अशीतिभङ्गाः भणितव्याः। येषु सप्तविंशति- मनुष्यों के भी अस्सी भंग वक्तव्य है। जिन स्थानों तेसु अभंगयं, नवरं–मणुस्साणं अमहियं स्तेषु अभङ्गकं, नवरं-मनुष्याणाम् अभ्य- में नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते है, उनमें मनुष्य जहणियाए ठिईए, आहारए य असीति- धिकं जघन्यिकायां स्थिती आहारके च अशी- भंग-शून्य होते हैं, विशेष ज्ञातव्य है कि मनुष्यों भंगा। तिभङ्गाः। के जघन्य स्थिति और आहारक शरीर में अधिक भंग-अस्सी भंग होते हैं। भाष्य २. अधिक भंग १. भंग-शून्य नैरयिक के जघन्य स्थिति में सत्ताईस भंग होते हैं। वहां नैरयिकों में क्रोधोदय की बहुलता होती है। इसलिए उनके मनुष्य के अस्सी भंग बनते हैं। मनुष्य की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त सत्ताईस भंग बनते हैं। मनुष्य में क्रोध, मान, माया और लोभ-इन की है। इस स्थिति वाले संख्या में अल्प मिलते हैं, इसलिए उनके सभी कषाय वालों की संख्या बहुत होती है, इसलिए इनका कोई अस्सी भंग बनते हैं। आहारक शरीर मनुष्य में ही होता है। आहारक भंग नहीं बनता।' शरीर वाले भी अल्प संख्या में होते हैं, इसलिए आहारक शरीर वालों में भी अस्सी भंग होते हैं। देखें यन्त्र नारक मनुष्य वैक्रिय, तैजस, कार्मण संहनन-रहित शरीर संहनन संस्थान लेश्या ज्ञान कृष्ण, नील, कापोत मति, श्रुत, अवधि (केवलज्ञान में क्रोधादिउपयुक्त नहीं होते।) १. भ.वृ.११२५१-विकलेन्द्रियाणां तु 'अब्भहिय' त्ति अभ्यधिकान्यशीतिर्भङ्ग कानां भवति, क ? इत्याह-सम्यक्त्वे, अल्पीयसां हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति। अल्पत्वाच्चैतेषामेकत्वस्यापि सम्भवेना शीतिभङ्गकानां भवति । एवमाभिनिबोधिके श्रुते चेति। २. वही,११२५१-भङ्गकाभावश्च क्रोधाधुपयुक्तानामेकदैव बहूनां भावादिति । ३. वही,१।२५२-यतो नारकाणां बाहुल्येन क्रोधोदय एव भवति, तेन तेषां सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तस्थानेषु युज्यन्ते । मनुष्याणां तु प्रत्येकं क्रोधाधुपयोगवतां बहूनां भावान्न कषायोदये विशेषोऽस्ति । तेन तेषां तेषु स्थानेषु भङ्गकाभाव इति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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