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भगवई
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श.१: उ.५: सू.२५४,२५५
२५४. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा भव-
णवासी, नवरं-नाणत्तं जाणियब्वं जंजस्स जाव अणुत्तरा।
वानमन्तर-ज्यौतिष-वैमानिकाः यथा भवन- २५४. वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव वासिनः नवरं नानात्वं ज्ञातव्यम् । यद् यस्य भवनवासी देवों की भांति वक्तव्य हैं, केवल यावद् अनुत्तराः ।
जिसका जो नानात्व है वह ज्ञातव्य है' यावत् अनुत्तर विमान तक।
भाष्य
१. जिसका जो नानात्व है वह ज्ञातव्य है।
ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में भवनपति देवों से कुछ विशेषताएं हैं । देखें यन्त्र
भवनपति
ज्योतिष्क
वैमानिक
तेजस
लेश्या
तेजस्, पद्म, शुक्ल अज्ञान | भजना (असंज्ञी की ३ नियमा (असंज्ञी | ३ नियमा
अपेक्षा--विभंग वाद में) उत्पन्न नहीं होते) । (मति, श्रुत, विभंग)
२५५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विह-
२३ से मौत से पहले ति जाब विर विति
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् २५५. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही विहरति ।
है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
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