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मूल
सूरिय-पदं
२५६. जावइयाओ णं भंते ! ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चैव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति ? हंता गोयमा ! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चैव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति ॥
२५७. जावइय णं भंते! खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवे पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावइयं चैव खेत्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभाइ ? उज्जोइ ? तवेइ ? पभासेइ ?
हंता गोयमा ! जावतिय णं खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासे उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरए तावइयं चैव खेत्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ ॥
छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक
संस्कृत छाया
सूर्य-पदम्
यावतः भदन्त ! अवकाशान्तराद् उदयन् सूर्यः चक्षुःस्पर्शं 'हव्वं' आगच्छति, अस्तमयन्नपि च सूर्यः तावतः चैव अवकाशान्तराच् चक्षुःस्पर्शं 'हव्वं' आगच्छति ?
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हन्त गौतम ! यावतः अवकाशान्तराद् उदयन् सूर्यः चक्षुःस्पर्श 'हव्वं' आगच्छति, अस्तमयन्नपि च सूर्यः तावतः चैव अवकाशान्तराच् चक्षुःस्पर्श 'हव्वं' आगच्छति ।
यावद् भदन्त ! क्षेत्रम् उदयन् सूर्यः आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, अस्तमयन्नपि च सूर्य: तावच्चैव क्षेत्रम् आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति ? उद्द्योतयति ? तापयति ? प्रभासयति ?
हंत गौतम ! यावत् क्षेत्रम् उदयन् सूर्यः आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति उद्द्योतयति तापयति प्रभासयति, अस्तमयन्नपि च सूर्यः तावच्चैव क्षेत्रम् आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति ।
भाष्य
१. सूत्र २५६, २५७
प्रस्तुत आलापक में सूर्य के उदय और अस्त के समय दृष्टिगोचर होने का उल्लेख है। किन्तु कितने अन्तराल से दृष्टिगोचर होता है, इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है। इसी प्रकार अवभासित होने वाले क्षेत्र के परिमाण का भी स्पष्ट निर्देश नहीं है । वृत्तिकार ने
१. भ. बृ. १ । २५६ -- स च किल सर्वाभ्यन्तरमण्डले सप्तचत्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु द्वयोः शतयोस्त्रिषष्टौ (४७२६३) च साधिकायां वर्तमान उदये दृश्यते ।
हिन्दी अनुवाद
सूर्य-पद
२५६ 'भन्ते ! उगता हुआ सूर्य जितने अब - काशान्तर से दृष्टिगोचर होता है, क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी उतने ही अवकाशान्तर से दृष्टिगोचर होता है ?
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हां, गौतम ! उगता हुआ सूर्य जितने अवकाशान्तर से दृष्टिगोचर होता है, अस्त होता हुआ सूर्य भी उतने ही अवकाशान्तर से दृष्टिगोचर होता है।
२५७ भन्ते ! उगता हुआ सूर्य अपने आप से सब दिशाओं और विदिशाओं में जितने क्षेत्र को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है', , क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने आतप से सब दिशाओं और विदिशाओं में उतने ही क्षेत्र को अवभासित, उद्घोतित, तप्त और प्रभासित करता है ?
हां, गौतम ! उगता हुआ सूर्य अपने आप से सब दिशाओं और विदिशाओं में जितने क्षेत्र को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने आप से सब दिशाओं और विदिशाओं में उतने ही क्षेत्र को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है ।
लिखा है कि सर्वाभ्यन्तरमण्डल में वर्तमान सूर्य उदय और अस्त के समय ४७२६३ साधिक योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है । यह अन्तर मण्डल - परिवर्तन के साथ बदलता रहता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए सूरपण्णत्ती (२ । ३) द्रष्टव्य है । २५७ वां सूत्र वृत्ति
अस्तसमयेऽप्येवम् । एवं प्रतिमण्डलं दर्शने विशेषोऽस्ति स च स्थानान्तरादवसेयः ।
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