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भगवई
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श.१: उ.६: सू.२५६-२५६
में व्याख्यात नहीं है। सूरपण्णत्ती के अनुसार एक सूर्य जम्बूद्वीप के डेढ़ पञ्चचक्र भाग को अवभासित, उयोतित, तप्त और प्रभासित करता है। शब्द-विमर्श
अवकाशान्तर-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं१.आकाशविशेष २.अवकाशरूप अन्तराल । अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है। इसलिए इसका अर्थ केवल आकाश किया जा सकता है।
हवं इसके अनेक अर्थ होते हैं-अर्वाक्, शीघ्र, सहसा ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'शीघ्र' किया है। इस शब्द का प्रयोग वाक्यालंकार के लिए भी होता है।
दृष्टिगोचर-जैन तर्कशास्त्र के अनुसार चक्षु अप्राप्यकारी है, इसलिए वृत्तिकार ने यहां 'स्पर्श' शब्द की मीमांसा की है। उनके अनुसार 'स्पर्श इव' (छूने जैसे) के अर्थ में 'स्पर्श' पद का प्रयोग किया गया है।
भगवद्गीता एवं आप्टे-कोश में स्पर्श का अर्थ 'इन्द्रिय-विषय' मिलता है।
सब दिशाओं और विदिशाओं में वृत्तिकार ने सवओ का अर्थ 'सब दिशाओं में' तथा समन्तात् का अर्थ 'सब विदिशाओं में किया है और इनको एकार्थक भी माना है।' २. अवभासित.........प्रभासित करता है
वृत्तिकार ने ओमासेइ आदि चार क्रिया-पदों की व्याख्या 'प्रकाश की चार अवस्थाओं के रूप में की है
अवमासयति—यह प्रथम अवस्था है। इसमें प्रकाश मन्द होता है। इससे स्थूलतर वस्तुएं प्रकाशित होती हैं।
उद्योतयति—यह दूसरी अवस्था है। इसमें पहली की अपेक्षा प्रकाश तेज होता है। इससे स्थूल वस्तुएं दिखाई देती हैं।
तापयति-इससे शीत का अपनयन होता है तथा सूक्ष्म पिपीलिका आदि जीव प्रकाशित होते हैं।
प्रभासयति इसमें अतिताप के योग से शीत का अधिक अपनयन होता है तथा सूक्ष्मतर वस्तुएं दिखाई देती हैं।
२५८. तं भंते ! किं पुटुं ओभासेइ ? अपुटुं
ओभासेइ ?
तद् भदन्त ! किं स्पृष्टम् अवभासयति ? २५८. भन्ते ! क्या सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित अस्पृष्टम् अवभासयति ?
करता है ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित
करता है ? गौतम ! स्पृष्टम् अवभासयति, नो अस्पृष्टम्।। गौतम ! वह स्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित करता है,
अस्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित नहीं करता।
गोयमा ! पुढे ओमासेइ, नो अपुढे ॥
२५६. तं भंते ! किं ओगाढं ओमासेइ ?
अणोगाढं ओभासेइ ?
तद् भदन्त ! किं अवगाढम् अवभासयति ? अनवगादम् अवभासयति ?
२५६. भन्ते ! क्या सूर्य अवगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है ? अथवा अनवगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है ? गौतम ! वह अबगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है, अनवगाढ क्षेत्र को अवभासित नहीं करता।
गोयमा ! ओगाढं ओभासेइ, नो अणोगाढं ॥ गौतम ! अवगाढम् अवभासयति, नो अनव-
गाढम्।
भाष्य
१. अवगाढ
अवगाढ का अर्थ है वस्तु का व्याप्ति-क्षेत्र; जितने क्षेत्र में वस्तु व्याप्त होती है, उतना क्षेत्र अवगाढ कहलाता है।
१. सूर.३।२। २. भ.वृ.१।२५६–'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद्वा । ३. भ.२०१६-अंतलिक्खे इ वा, सामे इ वा, ओवासंतरे इ वा, ....।। ४. देशीशब्दकोश। ५. भ.वृ.१।२५६–'हव्वं' ति शीघ्रम् । ६. वही,११२५६-चक्षुषो-दृष्टेः स्पर्श इव स्पर्शो न तु स्पर्श एव चक्षुषोऽप्राप्त
कारित्वादिति चक्षुःस्पर्शस्तम्।
७. (क) गीता,२।१४—मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय ! शीतोष्ण सुखदुःखदाः ।
(ख) आप्टे.स्पर्श:--Contact (in all senses). ८. भ.वृ.१।२५७–'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तात्' विदिक्षु एकार्थों वैतौ । ६. वही,१।२५७–'अवभासयति' ईषत्प्रकाशयति यथा स्थूलतरमेव वस्तु
दृश्यते। 'उद्योतयति' भृशं प्रकाशयति यथा स्थूलमेव दृश्यते । 'तपति' अपनीतशीतं करोति यथा वा सूक्ष्म पिपीलिकादि दृश्यते। 'प्रभासयति' तितापयोगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं विधत्ते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते ।
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