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भगवई
श.१: उ.५: सू.२३३-२३६
भाष्य
१. सूत्र २३३
सम्यग्मिथ्यादृष्टि वाले नैरयिक अल्प होते हैं और उनका कालमान भी अल्प होता है; इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि के अस्सी भंग बनते हैं।'
२३४. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव ___ अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् नैरयिकाः २३४. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक नेरइया किं नाणी, अण्णाणी? किं ज्ञानिनः, अज्ञानिनः ?
क्या ज्ञानी होते हैं अथवा अज्ञानी? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिणि गौतम ! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। त्रीणि गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी नाणाई नियमा। तिणि अण्णाणाई ज्ञानानि नियमात्। त्रीणि अज्ञानानि भज- होते हैं। सम्यग दृष्टि में तीन ज्ञान का नियम है, भयणाए॥ नया।
मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान की भजना (विकल्प)है।'
भाष्य १. सम्यग्दृष्टि में तीन ज्ञान का नियम है, मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान की भजना (विकल्प) है।
है। अमनस्क मिथ्यादृष्टि नरक में उत्पन्न होता है। उसके जन्मकाल नरक में उत्पन्न होने के समय जो जीव सम्यक्त्वी होते हैं, उनमें तीन ज्ञान प्रारम्भ से ही होते हैं, इसलिए सम्यग्दर्शन के साथ
के प्रथम अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिए
उसमें तीन अज्ञान का नियम नहीं होता। प्रथम अन्तर्मुहूर्त में उसमें तीन ज्ञान का नियम है, व्याप्ति है, अनिवार्यता है।
मति और श्रुत ये दो अज्ञान होते हैं। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् तीन नरक में उत्पन्न होने वाले मिथ्यादृष्टि जीव कुछ समनस्क होते
अज्ञान हो जाते हैं, इसलिए तीन अज्ञान भाज्य हैं—विकल्प के साथ हैं और कुछ अमनस्क होते हैं। समनस्क मिथ्यादृष्टि में विभंगज्ञान जन्म कभी होते हैं, कभी नहीं भी होते इस रूप में वक्तव्य है।' के पहले समय से ही होता है, इसलिए इसमें तीन अज्ञान का नियम
२३५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव
आभिनिबोहियनाणे वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा॥
अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावद् आभि- २३५. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी यावत् आभिनिबोधिकज्ञाने वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधो- निबोधिक ज्ञान में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः।
पयुक्त होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
२३६. एवं तिणि नाणाई, तिणि अण्णाणाई माणियब्वाइं॥
२३६. एवं त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि भणितव्यानि।
२३६. 'इसी प्रकार तीन ज्ञान और तीन अज्ञान में वर्तमान नैरयिकों के भी सत्ताईस सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र २३६
प्रस्तुत सूत्र में तीन अज्ञानों के लिए सत्ताईस भंग विवक्षित हैं। वृत्तिकार ने एक रहस्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है। विभंग अज्ञान से पूर्ववर्ती मति और श्रुत अज्ञान की विवक्षा हो, तो
उससे अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। यह अवस्था अन्तर्मुहूर्त्तकालिक होती है। इस अवस्था में अवगाहना भी जघन्य होती है। जघन्य अवगाहना के कारण ही उनके अस्सी भंग बनते हैं।'
१. भ.वृ.११२३३-मिश्रदृष्टीनामल्पत्वात्तद्भावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि
लभ्यते इत्यशीतिर्भङ्गाः। २. भ.वृ.१।२३४-ये ससम्यक्त्वा नरकेषूत्पद्यन्ते तेषां प्रथमसमयादारभ्य भव
प्रत्ययस्यावधिज्ञानस्य भावात् त्रिज्ञानिन एव ते । ये तु मिथ्यादृष्टयस्ते सज्ञिभ्योऽसज्ज्ञिभ्यश्चोत्पधन्ते, तत्र ये सज्ञिभ्यस्ते भवप्रत्ययादेव विभङ्गस्य भावात् त्र्यज्ञानिनः, ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेषामाधादन्तर्मुहूर्तात्परतो विभङ्गस्योत्पत्तिरिति तेषां पूर्वमज्ञानद्वयं पश्चाद्विभङ्गोत्पत्तावज्ञानत्रयमित्यत उच्यते-'तिन्नि अण्णाणाई भयणाए'त्ति भजनया' विकल्पनया कदाचिद् द्वे कदाचित्रीणीत्यर्थः । अत्रार्थे
गाथे स्याताम्
सन्नी नेरइएसुं उरल परिचायणंतरे समए। बिब्मंग ओहिं वा अविग्गहे विग्गहे लहइ ।। अस्सन्नी नरएसुं पज्जत्तो जेण लहइ विमंग।
नाणा तित्रेव तओ अन्नाणा दोनि तिन्नेव ॥ ३. भ.वृ.१।२३६ यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभङ्गात्पूर्वकालभाविनी विवक्ष्यते
तदाऽशीतिर्भमा लभ्यन्ते, अल्पत्वात्तेषां, किन्तु जघन्यावगाहनास्ते ततो जघन्यावगाहनाश्रयेणैवाशीतिभङ्गकास्तेषामवसेया इति ।
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