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________________ भगवई १७७ श.१: उ.६: सू.४१७-४१६ क्रोध, मान, माया और लोभ का अभाव प्रशस्त है। यह बात अमूर्छा, अगृद्धि और अप्रतिबद्धता का विकास हो नहीं सकता। जैन दर्शन में आबालगोपाल प्रसिद्ध है। फिर गौतम ने यह प्रश्न इसलिए अचेलत्व की प्रशस्तता के साथ अक्रोधत्व का अविनाभावी क्यों पूछा ? यह जिज्ञासा बहुत स्वाभाविक है। किन्तु गौतम ने संबंध है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें, तो उस समय आजीवक जिस सन्दर्भ में पूछा और भगवान् महावीर ने जिस सन्दर्भ में उत्तर आदि अनेक सम्प्रदायों में अचेलत्व प्रचलित था। उनकी दिया, वह प्रसिद्ध नहीं है। कषायमुक्ति-शून्य अचेलत्व की साधना के सन्दर्भ में प्रश्न पूछा गया गौतम के प्रश्न का सन्दर्भ यह है-एक ओर अचेलत्व है, और उस विषय में महावीर ने अपना मत प्रस्तुत किया । दूसरी ओर कषाय की प्रबलता है। क्या इस स्थिति में अचेलत्व को भगवान महावीर की साधना-पद्धति में बाह्य और आंतरिक प्रशस्त कहा जा सकता है ? भगवान् महावीर ने इस जिज्ञासा के दोनों का समन्वय देखा जाता है। द्रव्यअवमोदरिका में जहां उपकरणों उत्तर में कहा-मैं केवल द्रव्यसाधना को महत्त्व नहीं देता । अचेलत्व को कम करने का विधान है, वहां भावअवमोदरिका में क्रोध, मान, द्रव्यसाधना या बाह्य साधना है। अक्रोध आदि होना भावसाधना या माया, लोभ आदि को कम करने का विधान है।' इस सत्र से भी आंतरिक साधना है । अक्रोध आदि की साधना हुए बिना अल्पेच्छा. उक्त सिद्धान्त का समर्थन होता है। कंखापदोस-पदं कांक्षाप्रदोष-पदम् कांक्षाप्रदोष-पद ४१६.से नणं भंते ! कंखापदोसे खीणे समणे अथ नूनं भदन्त ! काङ्क्षाप्रदोषे क्षीणे श्रमणः ४१६. 'भन्ते ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर निग्गंये अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा? निर्ग्रन्थः अन्तकरो भवति, अन्तिमशरीरिको श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तकर या अन्तिमशरीरी होता वा? बहुमोहे वि य णं पुचि विहरित्ता अह पच्छा बहुमोहः अपि च पूर्वं विहृत्य अथ पश्चात् कोई श्रमण पहले मोहबहुल रहकर भी उसके संखुडे कालं करेइ, ततो पच्छा सिज्झति संवृतः कालं करोति, ततः पश्चात् सिध्यति पश्चात् संवृत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो बुज्झति मुचति परिनिवाति सब्बदुक्खाणं 'बुज्झति' मुञ्चति परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् । क्या वह मृत्यु के अनन्तर सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त अंतं करेति? अन्तं करोति ? और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है? हंता गोयमा ! कंखापदोसे खीणे समणे हन्त गौतम ! काङ्क्षाप्रदोषे क्षीणे श्रमणः हां, गौतम ! कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिग्गंथे अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा। निर्ग्रन्थः अन्तकरो भवति, अन्तिमशरीरिको निर्ग्रन्थ अन्तकर या अन्तिमशरीरी होता है। वा। बहुमोहे वि य णं पुढि विहरित्ता अह पच्छा संवडे कालं करेइ ततो पच्छा सिज्झति बुज्झति मुचति परिनिव्वाति सबदुक्खाणं अंतं करेति॥ बहुमोहः अपि च पूर्वं विहृत्य अथ पश्चात् संवृतः कालं करोति ततः पश्चात् सिध्यति 'बुज्झति' मुञ्चति परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। पहले मोहबहुल रहकर भी वह उसके पश्चात् संवृत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो मृत्यु के अनन्तर सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। भाष्य १. सूत्र ४१६ प्रस्तुत सूत्र में 'कांक्षाप्रदोष,' 'संवत' और 'बहु'-ये तीन शब्द विशेष चर्चनीय हैं। कांक्षा का अर्थ है-अयथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाने की इच्छा । कोई व्यक्ति दर्शनमोह की प्रचुरता के कारण मिथ्या दृष्टिवाला होता है, किन्तु उसी जन्म में वह संवृत अवस्था को प्राप्त हो सकता है और प्राप्त होकर मुक्त भी हो सकता है। मोह और कांक्षा इन शब्दों की तुलना के लिए अभिधर्म कोश द्रष्टव्य है।' कांक्षा की विशेष जानकारी के लिए देखें, भ.91११८,१४०,१६६,१७० का भाष्य। ___संवृत की विशेष जानकारी के लिए देखें, भ.१।४४-४७ का भाष्य। अंतकर और अंतिमशरीरी की विशेष जानकारी के लिए देखें, भ.१.२०१,२०८ का भाष्य । 'अगेहि'त्ति भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्तिः, अप्रतिवद्धता-स्वजनादिषु से किं तं भावोमोदरिया ? भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णता, तं जहास्नेहाभाव इत्येतत्पञ्चकमिति गम्यम् । श्रमणानां निर्ग्रन्थानां 'प्रशस्तं' सुन्दरम् अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोभे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पतुमंतुमे । अथवा लाघविकं प्रशस्तं, कथम्भूतमित्याह—'अप्पिच्छा' अल्पेच्छारूपमित्यर्थः २. अभिधर्म कोश भाष्य,५।३२–मोहाकांक्षा— मूढस्य पक्षद्वयं श्रुत्वा विचिकिएवमितराण्यपि पदानि । सोत्पद्यते। दुखं विदं नत्विदं दुःखमित्येवमादि। १. भ.२५।५६५,५६८-से किं तं दव्योमोदरिया ? दव्योमोदरिया दुविहा पण्णता, ततो मिथ्यादृष्टिः-विचिकित्साया मिथ्यादृष्टिः प्रवर्तते। संशयितस्य तं जहा-उवगरणदव्योमोदरिया य भत्तपाणदव्योमोदरिया य ॥ मिथ्याश्रमणचित्तानां मिथ्यानिश्चयोत्पत्तेः। नास्ति दुःखमित्येवमादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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