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श.१: उ.६: सू.३६२-४१८
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भगवई
सब द्रव्य, सब प्रदेश और सब पर्याय पुद्गलास्तिकाय की भांति अगुरुलघु बतलाए गए हैं। यह सापेक्ष वचन है। अगुरुलघु के प्रदेश और पर्याय अगुरुलघु तथा गुरुलघु के प्रदेश और पर्याय गुरुलघु विवक्षित हैं।'
शब्द-विमर्श तृतीय पद-तीसरा विकल्प-गुरुलघु चतुर्थक पद-चौथा विकल्प-अगुरुलघु
पसत्थ-पदं प्रशस्त-पदम्
प्रशस्त-पद ४१७. से नणं भंते ! लाघवियं अप्पिच्छा अथ नूनं भदन्त ! लाघविकम् अल्पेच्छा ४१७. 'भन्ते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव,
अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं अमूर्छा अगद्धिः अप्रतिबद्धता श्रमणानां अल्पेच्छा, अमूर्छा, अगृद्धि, अप्रतिबद्धता प्रशस्त निग्गंथाणं पसत्थं ?
निर्ग्रन्थानां प्रशस्तम् ? हंता गोयमा ! लापवियं अप्पिच्छा अमुच्छा हन्त गौतम ! लाघविकम अल्पेच्छा अमूर्छा हां, गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव, अगेही अपडिबद्धया समणाणं निगंथाणं अगृद्धिः अप्रतिबद्धता श्रमणानां निम्रन्थानां अल्पेच्छा, अमूर्छा, अगृद्धि, अप्रतिबद्धता प्रशस्त पसत्थं ॥
प्रशस्तम्।
४१८. से नूणं भंते ! अकोहत्तं अमाणत्तं
अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं ? हंता गोयमा ! अकोहत्तं अमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निगंथाणं पसत्यं ।
अथ नूनं भदन्त ! अक्रोधत्वम् अमानत्वम् ४१८. भन्ते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अक्रोध, अमायात्वम् अलोभत्वं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां अमान, अमाया और अलोभ का भाव प्रशस्त प्रशस्तम् ? हन्त गौतम ! अक्रोधत्वम् अमानत्वम् अमाया- हां, गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अक्रोध, त्वम् अलोभत्वं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां प्रशस्तम् ।
अमान, अमाया और अलोभ का भाव प्रशस्त है।
भाष्य १. सूत्र ४१७,४१८
प्रस्तुत प्रकरण में 'लाघव' शब्द का संबंध अचेल या अल्पचेल प्रशस्त बतलाया। उसके प्रशस्त होने के चार हेतु हैं-१. इच्छा का से है। अचेल मुनि के लाघव गुण का विकास होता है। ठाणं में अभाव २. मूर्छा का अभाव ३. गृद्धि का अभाव ४. प्रतिबद्धता अचेलत्व के प्रशस्त होने के पांच कारण बतलाए गए हैं। उनमें एक का अभाव। लाघव है।' उत्तरायणाणि में प्रतिरूपता का फल लाधव बतलाया
वृत्तिकार ने 'लाघविक' का अर्थ अल्पोपधिक तथा 'अल्पेच्छा' गया है। इस प्रकार 'लाघव' शब्द अचेलत्व का सूचक शब्द बन
आदि पदों का अर्थ स्वतन्त्र रूप से किया है । वैकल्पिक रूप में गया। भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न का समर्थन करते हुए उसे ।
'अल्पेच्छा' आदि पदों को लाघविक का विशेषण भी माना है।'
गुरु लहुअं उभयं, णोभयमिति वावहारियणयस्स । दव्यं लेटुं दीवो, वायू वोमं जधासंखं ।। णिच्छयतो सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा ण विज्जते दव्वं । वातरमिह गुरुलहुअं, अगुरुलहुं सेसयं सव्वं । जइ गरुअं लहुअं वा, ण सव्वधा दव्यमस्थि तो कीस । उद्धमधो वि य गमणं जीवाणं पोग्गलाणं च ? | उद्धं लहुकम्माणं, भणितं गुरुकम्मणामधोगमणं । जीवा य पोग्गलावि य, उद्धाधोगामिणो पायं ।। अण्ण चिय गुरुलहुता, अण्णो दव्वाण विरियपरिणामो । अण्णो गतिपरिणामो, णावस्सं गुरुलहुनिमित्तो। परमलहूणमणूणं, जं गमणमधोऽवि तत्थ को हेतू ? उद्धं धूमातीणं, थूलतराणं पि किं कजं ? | किं व विमाणातीणं, णाधोगमणं महागुरूणं पि । तणुतरदेहो देवो, हक्खुवति व किं महासेलं ? | अध तस्स विरियं तं तो, णाधोगमणकारणं गुरुता। उद्धगतिकारणं वा, लहुता एगंततो जुत्ता ।।
विरियं गुरुलहुयाणं, जधाधियं गतिविवजयं कुणति ।
तध गतिठितिपरिणामो, गुरुलहताओ विलंधेति ॥ १. भ.वृ.१।४१५-- 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'सर्वप्रदेशाः' तेषामेव निविभागा अंशाः सर्वपर्यवाः वर्णोपयोगादयो द्रव्यधर्माः। एते पुद्गलास्तिकायवद् व्यपदेश्याः, गुरुलधुत्वेनागुरुलधुत्वेन चेत्यर्थः । यतः सूक्ष्माण्यमूर्तानि च द्रव्याण्यगुरुलधूनि, इतराणि तु गुरुलधूनि, प्रदेशपर्यवास्तु तत्तद्रव्य
सम्बन्धित्वेन तत्तस्वभावा इति । २. आयारो,८।६४,११३। ३. टाणं,५/२०१ ---पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं जहा—अप्पा पडि
लेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे बेसासिए, तवे अणुण्णाते, विउले इंदियणिगहे। ४. उत्तर.२६।४३–पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ । लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीस- सणिजरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतवसभिइसमन्नागए यावि भवइ। ५. भ.वृ.११४१७-लाघवियंति लाघवमेव लाधविकम्-अल्पोपधिकं 'अप्पिच्छत्ति अल्पोऽभिलाष आहारादिषु, 'अमुच्छति उपधावसंरक्षणानुबन्धः,
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