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भगवई
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श.१: उ.८. सू.३७५-३८३ शरीर नाम कर्म का उदय-इनके योग से वीर्य उत्पन्न होता है। वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम होता है, वह करण-वीर्य की दृष्टि से सिद्धों में अंतराय कर्म का क्षायिक भाव है, किंतु उनके शरीर नहीं सवीर्य होता है। जिसमें उत्थान आदि नहीं होते, वह करण-वीर्य की है; इसलिए उन्हें अवीर्य कहा गया है। संसारी जीव के शरीर और दृष्टि से अवीर्य होता है। इससे फलित होता है कि किसी कार्य को अन्तराय कर्म का क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भाव ये दोनों होते सिद्ध करने के लिए एक त्रिपदी का योग आवश्यक है—१. लब्धिहैं; इसलिए उन्हें सवीर्य और अवीर्य दोनों बतलाया गया है। जिस वीर्य २. क्रियात्मक वीर्य ३. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारअवस्था में मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति सर्वथा निरुद्ध हो जाती -पराक्रम । इसी आधार पर पुरुषार्थवाद का प्रासाद खड़ा है। इस है, शैलेश-मेरुपर्वत की भांति सर्वथा अप्रकम्प अवस्था प्राप्त हो संदर्भ में भ.१।१४६१६२ सूत्र द्रष्टव्य हैं। जाती है, उस शैलेशी अवस्था में लब्धि-वीर्य होता है, किंतु करण
वृत्तिकार ने करण-वीर्य से अवीर्य होने की संगति अपर्याप्त -वीर्य नहीं होता। लब्धि-वीर्य एक क्षमता है, करण-वीर्य क्रियात्मकता
अवस्था में बतलाई है। उनके मतानुसार उत्थान आदि की क्रिया से या प्रवृत्ति है। मनुष्य लब्धि-वीर्य से सवीर्य होता है और करण-वीर्य
विकल अपर्याप्त अवस्था में ही होता है।' से वह सवीर्य और अवीर्य दोनों होता है। जिसमें उत्थान, कर्म, बल,
३५३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् विहरति।
३८३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है-इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
१. भ.वृ.१।३७६–अवीर्यास्तूत्थानादिक्रियाविकलाः ते चापर्याप्त्यादि कालेऽवगन्तव्या इति ।
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