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भगवई
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आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि तत्त्वों का व्यवहार और निश्चय दोनों नयों से निरूपण किया है। व्यवहार नय के अनुसार आयारो आदि द्वादशांग श्रुतज्ञान हैं, जीव आदि नव तत्त्वों की श्रद्धा दर्शन है, षड्जीवनिकाय की हिंसा का परिहार चारित्र है । निश्चय नय के अनुसार आत्मा ज्ञान है, आत्मा दर्शन है, आत्मा चारित्र है, आत्मा प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संवर योग है।
स्थविरों के द्वारा द्रव्यार्थिक नय का निरूपण सुनकर कालास अनगार ने जिज्ञासा की — “यदि आत्मा ही सामायिक यावत् व्युत्सर्ग है तो आपने क्रोध आदि कषाय का व्युत्सर्ग कर दिया, फिर गर्हा क्यों करते हैं ?" स्थविरों ने कहा - "हम संयम के लिए गर्हा का प्रयोग करते हैं।" इस उत्तर से यह फलित होता है कि जहां गुणप्रतिपन्न आत्मा की विवक्षा है वहां आत्मा ही सामायिक है। किन्तु जहां गुण की विवक्षा है, वहां सामायिक का अर्थ है - सावद्य योग की विरति । प्रत्याख्यान का अर्थ है-अनागत सावद्य योग का परित्याग। संयम का अर्थ है-इन्द्रिय और मन का निग्रह। संवर का अर्थ है-अव्रत आदि का निरोध । विवेक का अर्थ है-क्रोध आदि कषाय का पृथक्करण । व्युत्सर्ग का अर्थ है— क्रोध आदि कषाय
विमुक्ति । ग के द्वारा संयम की पुष्टि होती है। जब सामायिक आदि आत्मगत या परिपक्क हो जाते हैं, उस अवस्था में आत्मा ही सामायिक है, ऐसा कहा जा सकता है, किन्तु जिस अवस्था में सामायिक आदि का अभ्यास अपरिपक्व अवस्था में है, उस स्थिति में ग के द्वारा उनके अभ्यास को परिपक्क किया जाना आवश्यक है । शरीर के द्वारा पापकर्म का आचरण न करना गर्हा का एक प्रकार है । प्रत्याख्यान का भी यही प्रकार है। ठाणं के इस सिद्धान्त से यह सिद्ध होता है कि गर्दा संयम की साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । इसलिए गर्हा के द्वारा संयम उपहित, उपचित और उपस्थित होता है।
शब्द-विमर्श
स्थविर—स्थविर का अर्थ है-वृद्ध । ठाणं में दस प्रकार के स्थविर निर्दिष्ट हैं - ग्रामस्थविर, नगरस्थविर, राष्ट्रस्थविर, प्रशास्ता - स्थविर - प्रशासक - ज्येष्ठ, कुलस्थविर, गणस्थविर, संघस्थविर, जाति
१. समयसार, गा. २७६, २७७
आयारादी गाणं, जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा, भणदि चरितं तु ववहारो ॥ आदा खु मज्झणा आदा मे दंसणं चरितं च । आदा पचक्खाणं, आदा मे संवरो जोगो ॥
२. ठाणं, २।२४४ और उसका टिप्पण।
३. (क) वही, ३ । २६, २७ तिविहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा - मणसा वेगे गरहति, वयसा वेगे गरहति, कायसा वेगे गरहति — पावाणं कम्माणं अकरणयाए । अहवा गरहा तिविहा पण्णत्ता, तं जहादीहं पेगे अद्धं गरहति, रहस्सं पेगे अद्धं गरहति, कार्य पेगे पडिसाहरति--पावाणं कम्माणं अकरणयाए । तिविहे पचक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा —मणसा वेगे पञ्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खाति, कायसा वेगे पच्चक्खाति-पावाणं कम्माणं अकरणयाए। अहवा पच्चक्खाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहादीहं पेगे अद्धं पञ्चक्खाति, रहस्सं पेगे अद्धं
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श. १: उ. ६ः सू.४२३-४३३
स्थविर, श्रुतस्थविर, पर्यायस्थविर । '
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अभयदेवसूरि ने यहां स्थविर का अर्थ 'श्रुतवृद्ध' किया है। वहारो तथा ठाणं में ठाणं और समवाओ – इन दो आगमों को धारण करने वाले को 'श्रुतस्थविर' कहा गया है।' ओवाइयं के अनुसार स्थविर द्वादशांगधर होता है। वहां स्थविर का विशेष विवरण उपलब्ध
बाल्य - मिध्यात्व और अविरति । ' उपहित — सन्निहित प्राप्त ।
उपस्थित चिरस्थायी |
अज्ञान—प्रस्तुत विषय के स्वरूप की जानकारी का अभाव । अबोधि – सम्यक ज्ञान की अनुपलब्धि अथवा सहज ज्ञान का अभाव । अनभिगम—— विस्तृत बोध का अभाव ।
अदृष्ट — अप्रत्यक्षीकृत |
अव्याकृत-अव्याख्यात, गुरु के द्वारा व्याख्यात्मक रूप में अप्राप्त । अव्यवच्छिन्न — जिसका लक्षण या विश्लेषण ज्ञात न हो । अनिर्वृढ — जिसका सार-संक्षेप उद्धृत न किया गया हो । अनुपधारित — जो धारण न किया गया हो, जिसका चिन्तन न किया गया हो।
प्रतिक्रमण - आवश्यक का एक अंग, चौथा आवश्यक, अतीत का प्रतिक्रमण |
फलक शय्या - लम्बा और सपाट किए हुए फलक की शय्या | काष्ठशय्या-असंस्कृत काष्ठ की शय्या । ब्रह्मचर्यवास देखें भ. १ | २००-२१० का भाष्य । लब्धापलब्धी —- लाभ और अलाभ अथवा अपूर्ण लाभ | उच्चावच असंतुलित ।
ग्रामकण्टक—कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषय | विशेष जानकारी के लिए देखें दसवे. १०/११ का टिप्पण । परीषह साधनाकाल में आने वाले कष्ट । उपसर्ग - मनुष्य, पशु आदि द्वारा किया जाने वाला उपद्रव ।
पञ्चक्खाति, कार्य पेगे पडिसाहरति- पावाणं कम्माणं अकरणयाए । (ख) वही, ४ । २६४ - - चउव्विहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा - उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, जं किंचिमिच्छामित्तेगा गरहा, एवं पि पण्णतेगा गरहा।
४. ठाणं, १०।१३६ ।
५. भ. वृ. १ | ४३३ – 'थेरे 'त्ति श्रीमन्महावीरजिनशिष्याः श्रुतवृद्धाः ।
६. (क) वबहारो, १० | १६ तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - जातिथेरे सुयथेरे परियायथेरे। सट्टिवास जाए समणे निग्गंथे जातिथेरे, ठाणसमवायधरे समणे निग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे परियायथेरे । (ख) ठाणं, ३।१८७।
७. ओवा. सू. २५,२६ ।
८. भ. वृ. १/४२८ -- बाल्यं-वालतां मिथ्यात्वमविरतिं च । ६. ठाणं ४ । ५६७-६०१ ।
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